Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
अट्ठमं अज्झयणं : पाठवां अध्ययन
वीरियं : वीर्य
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
१. दुहा वेयं सुयक्खायं
वीरियं ति पच्चई। किण्णु वीरस्स वीरितं ? केण वीरो त्ति वुच्चति?॥
द्विधा वैतत् स्वाख्यातं, वीर्य इति प्रोच्यते । किण्ण वीरस्य वीर्य ? केन वीर इति उच्यते? ॥
१. यह स्वाख्यात वीर्य दो प्रकार का कहा गया है । वीर का वीर्य क्या है? वह किस कारण से वीर कहलाता है ?
२. कम्ममेव पवेदेति
अकम्मं वा वि सुव्वया। एतेहिं दोहि ठाणेहि जेहिं दीसंति मच्चिया ॥
कर्म एव प्रवेदयन्ति, अकर्म वापि सुव्रताः । एतयोः द्वयोः स्थानयोः, ययोद्देश्यन्ते माः ।।
२. सुव्रत (तीर्थंकर)' दो प्रकार के वीर्य का प्रतिपादन करते हैं -कर्मवीर्य और अकर्मवीर्य ।' सभी मनुष्य इन दो स्थानों में विद्यमान हैं।'
३.पमायं कम्ममाहंसु
अप्पमायं तहावरं। तब्भावादेसओ वा वि बालं पंडियमेव वा॥
प्रमादं कर्म आहुः, अप्रमादं तथाऽपरम् । तद्भावादेशतो वापि, बालं पंडितमेव वा ।।
३. तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म
कहा है।' कर्मवीर्य के सद्भाव की अपेक्षा से मनुष्य 'बाल' और अकर्मवीर्य के सद्भाव की अपेक्षा से वह 'पंडित' कहलाता है ।
४. कुछ लोग प्राणियों को मारने के लिए शस्त्र (या
शास्त्र) की शिक्षा प्राप्त करते हैं और कुछ लोग प्राणियों और भूतों को बाधा पहुंचाने वाले मंत्रों
का अध्ययन करते हैं । ५. मायावी मनुष्य (राजनीति शास्त्रों से सीबी हुई)
माया का प्रयोग कर कामभोगों (धन) को प्राप्त करते हैं। वे अपने सुख के अनुगामी होकर प्राणियों का हनन, छेदन और कर्तन करते हैं ।
४. सत्थमेगे सुसिक्खंति शस्त्रमेके सुशिक्षन्ते, अतिवाताय पाणिणं । अतिपाताय प्राणिनाम् । एगे मंते अहिज्जंति एके मन्त्रान् अधीयते, पाणभूयविहेडिणो ॥ प्राणभूतविहेडिनः ॥ ५. माइणो कटु मायाओ मायिनः कृत्वा मायाः, कामभोगे समारभे। कामभोगान् समारभन्ते । हंता छेत्ता पगतित्ता हन्तारः छेत्तारः प्रकर्तयितारः,
आय-सायाणुगामिणो ॥ आत्मसातानुगामिनः ॥ ६. मणसा वयसा चेव मनसा वचसा चैव, कायसा चेव अंतसो। कायेन चैव अन्तशः । आरतो परतो वा वि आरतः परतो वापि, दुहा वि य असंजता ॥ द्विधाऽपि च असंयताः ।। ७. वेराई कुव्वती वेरी वैराणि करोति वैरी, ततो वेरेहि रज्जती। ततो वैरेष रज्यति । पावोवगा य आरंभा पापोपगाश्च आरंभाः,
दुक्खफासा य अंतसो॥ दुःखस्पर्शाश्च अन्तशः ।। १. हेडङ-अनाधरे इति धातुनिष्पन्नोऽय शब्दः ।
६. असंयमी मनुष्य मन से, वचन से और अन्त में काया
से," स्वयं या दूसरे से" या दोनों के संयुक्त प्रयत्न से (जीवों की हिंसा करते हैं, करवाते हैं।)
७. वैरी वैर करता है। फिर वह वैर में अनुरक्त हो जाता है।" हिंसा की प्रवृत्तियां मनुष्य को पाप की ओर ले जाती हैं। अन्त में उनका परिणाम दुःखदायी होता है।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org