Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
सूयगडो.
४३२
प्र० १०:समाधि : श्लोक १६-२४
१६. जहाय वित्तं पसवो य सव्वे
जे बंधवा जेय पिया य मित्ता। लालप्पई से वि उवेति मोहं अण्णे जणातं सि हरति वित्तं ॥
हित्वा वित्तं पशंश्च सर्वान, ये बान्धवाः यानि च प्रियाणि
च मित्राणि । लालप्यते सोपि उपैति मोहं, अन्ये जनाः तत् तस्य हरन्ति वित्तम् ॥
१६. धन को, सारे पशुओं को, जो बांधव
और प्रिय मित्र हैं उन्हें छोड़ (वह जाता है तब) विलाप करता है और मोह को प्राप्त होता है। (उसके चले जाने पर) दूसरे लोग उसके धन का हरण कर लेते हैं।
२०. जैसे चरते हुए छोटे पशु" सिंह से डर
कर दूर रहते हैं," इसी प्रकार मेधावी मनुष्य धर्म को समझकर दूर से ही पाप को छोड़ दे।
२०.सीहं जहा खुद्दमिगा चरंता
दूरे चरंती परिसंकमाणा। एवं तु मेहावि समिदख धम्म
दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥ २१.संबुज्झमाणे उ गरे मतीमं
पावाओ अप्पाण णिवट्टएज्जा। हिंसप्पसूताणि दुहाणि मत्ता वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥
सिंहं यथा क्षद्रमृगाश्चरन्तः, दूरे चरन्ति परिशंकमानाः । एवं तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, दूरेण पापं परिवर्जयेत् ॥ संबुध्यमानस्तु नरो मतिमान्, पापात् आत्मानं निवर्तयेत् । हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, वैरानबन्धीनि महाभयानि ।
२१. मतिमान् मनुष्य समाधि को समझ
कर" तथा यह जानकर कि दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं," वैर की परंपरा को बढ़ाते हैं और महा भयंकर हैं, अपने
आपको पाप से बचाए । २२. आत्मगामी मुनि" असत्य न बोले ।
यह सत्य निर्वाण और सम्पूर्ण समाधि है।" मृषावाद स्वयं न करे, दूसरों से न करवाए और करने वाले का अनुमोदन भी न करे।
२२. मुसं ण बूया मुणि अत्तगामी णिव्वाणमेयं कसिणं समाहि। सयं ण कुज्जा ण वि कारवेज्जा करंतमण्णं पि य णाणुजाणे ॥
मषा न ब्रूयाद् मुनिरात्मगामी, निर्वाणमेतत् कृत्स्नः समाधिः । स्वयं न कुर्यात् नापि कारयेत्, कुर्वन्तमन्यमपि च नानुजानीयात् ॥
२३. सुद्धे सिया जाए ण दूसएज्जा
अमुच्छितो अणज्झोववण्णो। धितिमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी ण सिलोयकामी य परिव्वएज्जा॥
शुद्धे स्यात् जाते न दूषयेत्, अमूच्छितः धृतिमान् विमुक्तो न च पूजनार्थी, न श्लोककामी च परिव्रजेत् ।।
२३. एपणा द्वारा लब्ध शुद्ध आहार" को
दूषित न करे, उसमें मूच्छित और आसक्त न हो । संयम में धृतिमान् और अगार-बंधन से मुक्त" मुनि पूजा का अर्थी, श्लाघा का कामी न होता
हुआ परिव्रजन करे। २४. घर से अभिनिष्क्रमण कर, अनासक्त
हो,' शरीर का पुत्सर्ग कर,' कर्मबंधन को छिन्न करे । न जीवन की इच्छा करे और न मरण की। भव के वलय से मुक्त हो संयम की चर्या करे ।
२४.णिक्खम्म गेहाओ णिरावकंखी कायं विओसज्ज णिदाणछिण्णे। णो जीवितं णो मरणाभिकंखी चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के॥
निष्क्रम्य गेहाद निरवकांक्षी, कायं व्युत्सज्य छिन्ननिदानः । नो जीवितं नो मरणाभिकांक्षी, चरेद भिक्षवलयाद् विमुक्तः ॥
-त्ति बेमि॥
-इति ब्रवीमि ॥
-ऐसा मैं कहता हूं।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org