Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो।
४७८
अध्ययन ११ : टिप्पण ३५-३८ है । जो छिन्नस्रोत होता है वही निरास्रव होता है।'
आयगुत्ते आदि इन चार पदों में साधना का क्रम बतलाया है। साधक को सर्वप्रथम प्रत्याहार करना होता है, इन्द्रिय और मन की गति को बदलना तथा उन्हें बाहर से हटाकर भीतर में स्थापित करना होता है । यह गुप्ति की प्रक्रिया है। गुप्ति का बार-बार अभ्यास करने से इन्द्रिय और मन दान्त-उपशान्त हो जाते हैं। जैसे-जैसे उनकी शांति बढ़ती है वैसे-वैसे उनका स्रोत सूखता जाता है। एक बिन्दु ऐसा आता है जब स्रोत सर्वथा छिन्न हो जाते हैं । उस अवस्था में साधक निरास्रव बन जाता है। ३५. प्रतिपूर्ण (पडिपुण्णं)
वही धर्म प्रतिपूर्ण होता है जो सभी प्राणियों के लिए हितकर, सुखकर, सबके लिए समान, निरुपाधिक, सर्वविरतिभय, मोक्ष में ले जाने वाला होता है । अथवा जो धर्म दया, संयम, ध्यान आदि धर्म के कारणभूत तत्त्वों से सहित होता है व प्रतिपूर्ण होता है।
श्लोक २५ :
३६. वे समाधि से दूर हैं (अंतए ते समाहिए)
वे भिक्ष समाधि से दूर हैं। उन्हें मोक्ष समाधि प्राप्त नहीं हो सकती। अनेकाग्र होने के कारण उन्हें इहलोक में भी जब समाधि प्राप्त नहीं होती तब उन्हें परमसमाधि की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? वे संसार में रहते हुए भी इन्द्रिय-सुखों से वंचित रहते हैं और उन्हें परम समाधि का सुख भी प्राप्त नहीं होता। क्योंकि जहां हिंसा और परिग्रह है वहां एकाग्रता नहीं होती। जहां एकाग्रता नहीं होती वहां चार प्रकार की भावनाएं (कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना और धर्मानुपश्यना) प्राप्त नहीं होती। वे सुख से सुख पाने की बात सोचते हैं। ३७. श्लोक २५-३१:
प्रस्तुत आलापक (२५-३१) में बौद्धदृष्टि की समीक्षा की गई है। प्राणीमात्र को आश्वासन देने वाला धर्म-अहिंसा धर्म शुद्ध धर्म होता है । जो इसे नहीं जानते वे अबुद्ध होते हैं। बौद्ध बुद्धवादी हैं । वे समाधि की साधना करते हैं, फिर भी आरंभ और परिग्रह में आसक्त होने के कारण उसे उपलब्ध नहीं होते। वे हिंसा भी करते हैं और ध्यान भी करते हैं। वे आत्मा को नहीं जानते, इसलिए समाधिस्थ भी नहीं हो सकते।
श्लोक २६:
३८. श्लोक २६:
__प्रस्तुत श्लोक में चूर्णिकार ने बौद्ध परंपरागत कुछेक व्यवहारों का निर्देश किया है। बौद्ध भिक्षु अपने लिए कृत भोजन-पानी १. (क) चूणि, पृ० २०० : आत्मनि आत्मसु वा गुप्त आत्मगुप्तः, इन्द्रिय-नोइन्द्रियगुप्त इत्यर्थः, न तु यस्य गृहादीनि गुप्तानि ।
हिंसादीनि श्रोतांसि छिन्नानि यस्य स भवति छिन्नस्सोते, छिन्नश्रोतस्त्वादेव निराश्रवः । (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : मनोवाक्कार्यरात्मा गुप्तो यस्य स आत्मगुप्तः, तथा 'सदा-सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो
वश्येन्द्रियो धर्मध्यानध्यायो वेत्यर्थः, तथा छिन्नानि-नोटितानि संसारस्रोतांसि येन स तथा, एतदेव स्पष्ट
तरमाह-निर्गत आश्रवः-प्राणातिपातादिकः कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात् स निराधवः । २. चूणि, पृ० २००,२०१ : प्रतिपूर्णमिदं सर्वसत्त्वानां हित सुहं सर्वाविशेष्यं निरुपधं निर्वाहिक मोक्षं नैयायिकम् इत्यत: प्रतिपूर्णम्
अथवा सर्दया-दम-ध्यानादिभिर्धर्मकारणः प्रतिपूर्णमिति । ३. चूणि, पृ० २०१ : दूरतस्ते समाधिए । कथम् ? इहलोकेऽपि तावं तेऽनेकाग्रत्वात् समाधि न लभन्ते कुतस्तहि परमसमाधि मोक्षम् ? ।
तद्यथा-शाक्याः अबुद्धा बुद्धवादिनः सुखेन सुखमिच्छन्ति, इहलोकेऽपि तावद् ग्रामव्यापारैर्न सुखमास्वादयन्ति, कुतस्तहि परमसमाधिसुखमिति ? । उक्तं हि-तत्रैकाग्रं कुतो ध्यान, यत्राऽऽरम्भ-परिग्रहः ? इति । अतस्ते चतुविधाए भावणाए दूरतः ।
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