Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
५१५
५१. ज्योतिर्भूत पुरुष के पास सतत रहना चाहिए (जोइभूयं सतताव सेज्जा )
'जोइभूयं' का अर्थ है - ज्योति के समान, प्रकाशतुल्य । ज्योति चार हैं—सूर्य, चन्द्रमा, मणि और प्रदीप । जैसे ये चारों प्रकाश देते हैं, प्रकाशित करते हैं, वैसे ही जो लोक और बजोक को ज्योतिर्मय करता है वह ज्योतिर्भूत होता है। तीर्थंकर गणधर आदि ज्योतिर्भूत होते हैं । "
अध्ययन १२ टिप्पण ११-५४
सततावसेज्जा - यहां दो पदों में संधि की गई है - सततं + आवसेज्जा । इसका अर्थ है- यावज्जीवन तक उन ( तीर्थंकर, गणधर ) की सेवा करे । अथवा जो व्यक्ति जिस काल में प्रकाश देने वाला हो, उसकी सेवा करे ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- सतत गुरु के पास रहे, सदा गुरुकुलवास में रहे――किया है । "
श्लोक २० :
५२. आत्मा को जानता है (अत्ताण जो जाणइ )
जो आत्मा को जानता है अर्थात् जो आत्मज्ञ है। इसका तात्पर्य यह है कि जो आत्मा को परलोक में जाने वाला, शरीर से भिन्न और सुख-दुःख का आधार जानता है तथा जो आत्महित की प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है वह आत्मा को जानता है, वह आत्मज्ञ है ।"
छंद की दृष्टि से यहां 'अत्ताणं' में अनुस्वार का लोप माना है ।
५३. लोक को जानता है (लो)
भूविकार ने लोक का अर्थ प्रवृत्तिनिवृत्ति लोड किया है। जैसे—दृष्ट पदार्थों में मेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है, पैसे ही सब जीवों की होती है ।" प्रस्तुत प्रकरण में यह अर्थ बुद्धिगम्य नहीं होता । आचारांग चूर्णि में 'लोयवाई' पद के लोक शब्द का जो अर्थ किया गया है, वह संगत लगता है। जैसे 'मैं हूं वैसे अन्य जीव भी हैं।' जीव लोक के भीतर ही होते हैं। जीव और अजीव का समुदय लोक है
५४. जो आगति को जानता है (जो आगत जाणइ )
मनुष्य कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? कौन से कौन से कर्मों से कहां-कहां उत्पन्न होते हैं ? मैं कहां से आया हूं ?, मैं कहां जाऊंगा ? इन सबको जानना आगति को जानना है । "
१. णि, पृ० २१६ : ज्योतयतीति ज्योतिः आवित्यश्चन्द्रमाः मणिः प्रदीपो वा यथा प्रदीपो ज्योतयति एवमसौ लोका-लोकं ज्योतयतीति ज्योतिस्तुल्य इत्यर्थ - तित्थगरं गणधरे वा (यो) यस्मिन् काले ज्योतिर्भूतः ।
२०२१६
आवसेनासित जावजीबाए सेवेच्या तिस्वगरं गणधरे वा (वो) पश्मिम् काले ज्योतिर्भूतः । वृति पत्र २२८ सततम्' अनवरतम् 'आवसेत्' सेवेत पुर्वन्तिक एवं ४ (क) वृति पत्र २२८
वसेत्।
यो झापा परलोकयायिनं शरीराद्व्यतिरिक्तं सुखदु:खाधारं जानाति पश्चात्महितेषु प्रवर्तते स आरमो भवति ।
(ख) चूणि, पृ० २१६ : आत्मानं यो वेत्ति यथा 'अहमस्ति' इति संसारी च । अथवा स आत्मज्ञानी भवति य आत्महितेष्वपि प्रवर्त्तते । अथवा त्रैलोक्य (त्रैकाल्य) कार्यपदेशादात्मा प्रत्यक्ष इति कृत्वानित्यादि ।
५. चूर्ण, पृ० २१६ : येनाऽऽत्मा (ज्ञातो) भवति तेन प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपो लोको ज्ञात एव भवति आत्मोपम्येन, यथा--ममेष्टानि, प्रवृत्तिनिवृति भवतः यथास्तीति ।
६. आचारांग चूर्ण, पृ० १४ : लोगवादी णाम जह चेव अहं अस्थि एवं अन्नेऽवि देहिणो संति, लोगअव्मंतरे एव जीवा, जीवाजीवा लोगसमुदयो इति भचितवादी
७. (क) पूणि, पृ० २१६ कुतो मनुष्य आगच्छन्ति कर्मभिः कुत्र वा गच्छन्ति ? न विद्मः कुतोऽहमायतः गमिष्यामि : ?- - कैर्वा
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(ख) मूर्ति पत्र २२८ यश्च जीवानाम् आगतिम् आगमनं कुनः समागता नारकास्तिर्यच्यो मनुष्या देवा? कंर्या कर्मचिनरकावित्वेनोत्पद्यन्ते ?, एवं यो जानाति ।
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