Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
२६. ऋजु आचरण करता है ( सुउज्जुयारे )
इसका अर्थ है - अच्छी प्रकार से ऋजु आचरण करने वाला। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने ऋजु के दो अर्थ किए हैं-संयम और सरल । ऋजुकारी वह है जो संयमपूर्ण प्रवृत्ति करता है या सरल प्रवृत्ति करता है, जो कहता है वैसे ही सरलता से करता है, विलोम नहीं करता । जो गुरु के उपदेश के अनुसार आचरण करता है किन्तु वक्रता से आचार्य आदि के वचन का खंडन नहीं करता, वह ऋजु आचार वाला होता है ।'
२७. शान्तचित्त रहता है (तहच्ची)
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अधि का अर्थ है लेग्या चित्तवृत्ति जो गुरु द्वारा अनुशासित होने पर भी पूर्ववत् अपनी चित्तवृत्ति को शुद्ध रखता है, शान्त रखता है वह तथाचि होता है। अनुशासन से पूर्व उसकी चित्तवृत्ति शांत थी, विशुद्ध थी और अनुशासित होने पर भी उसमें कोई अन्तर नहीं आया, वह पुरुष तथाचि होता है । जो व्यक्ति अनुशासित होने पर क्रोध या मान करता है, वह तथाचि नहीं होता । " २८. ( समे हु से होइ अझपत्ते )
२१. संयमी और ज्ञानी (वसुमं संखाय )
चूर्णिकार का अर्थ है वही मुनि वीतराग व्यक्तियों के तुल्य होता है ।
चूर्णिकार ने 'सम' का अर्थ तुल्य और 'अभंझपत्ते' का अर्थ - वीतराग व्यक्तियों से किया है ।"
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए है
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१. वह मध्यस्थ होता है-न निन्दा से रुष्ट होता है और न प्रशंसा से तुष्ट । वह अक्रोधी और अमायावी होता है । २. वह मध्यस्थ होता है तथा वीतराग व्यक्तियों के तुल्य होता है ।
श्लोक ८ :
+1
'वसु' का अर्थ है - द्रव्य । लोकोत्तर प्रसंग में इसका अर्थ है-संयम । '
चूर्णिकार ने 'वुसिम' पाठ मान कर उसका अर्थ संयममय आत्मा वाला किया है ।"
संख्या का अर्थ है- ज्ञान ।" हमने इस शब्द का संस्कृत रूप 'संख्याक' दिया है और वृत्तिकार ने 'संख्यावन्तम्' ।" इसका अर्थज्ञानी ।
३०. ( संखाय वायं अपरिच्छ कुज्जा)
अध्ययन १३ : टिप्पण २६-३०
वह अपने आपको ज्ञानी मानता हुआ कहता है-आज इस संसार में मेरे जैसा संयमी और सामाचारी का पालन करने वाला दूसरा कौन है ? ' रोष, प्रतिनिवेश या अकृतज्ञता के भाव से अथवा मान के वशीभूत होकर वह परीक्षा किए बिना ही अपना
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१ (क) चूर्णि, पृ० २२२ : उज्जुगो णाम संजमो, जं वा बुच्चति तं उज्जुगमेव करेति ण विलोमेति 1
(ख) वृत्ति, पत्र २४० : ऋजु संयमस्तस्करणशीलः -- ऋजुकरः, यदि वा उज्जुचारे त्ति यथोपदेशं यः प्रवर्तते, न तु पुनर्वक्रतयाऽपार्यादिवचनं विलोमयति प्रतिकूलयति ।
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२. नि. ०२२२ अविरिनि लेश्या तथेति यथा पूर्व लेखा तथालेश्य एव भवति पूर्वमसौ विशुद्धलेश्य आसीत् अनुशास्यमानोऽपि तथैव भवत्यतो । तथा च न क्रोधाद्वा मानाद्वा विशुद्धलेश्यो भवति ।
३. चूर्ण, पृष्ठ २२२ : समो नाम तुल्यः असौ हि समो भवत्यप्राप्तः वीतरागैरित्यर्थः ।
५. चूर्णि पृ० २२२ : वुसिमं संय [म] मयमात्मानं ।
६. वृत्ति, पत्र २४१ : वसु-द्रव्यं तच्च परमार्थचिन्तायां संयमः ।
४. वृत्ति, पत्र २४०-२४१ : समो मध्यस्थो निन्दायां पूजायां च न रुष्यति, नापि तुष्यति; तथा अभंझा — अक्रोधोऽमाया वा तां प्राप्तोऽ
प्राप्तः यदि वा
वीतरागः समः --तुल्यो भवतीति । ।
७. चूणि, पृ० २२२ : संख्या इति ज्ञानम् ।
८. वृत्ति, पत्र २४१ : संख्यायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं संख्येत्युच्यते ।
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