Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
सूयगडो १
वे गहित होते हैं ।
चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ इस प्रकार से किया है-'
१. मन, वचन और काया की प्रवृत्ति, जो निन्दित और कर्म बंधन युक्त है, धर्मकथी उनका प्रयोग न करे ।
२. धर्मंकथी धर्मकथा करने के समय जो वाक्प्रयोग गर्हित हैं उनका कथन न करे। जैसे-- जो वचन, हिंसा और परिग्रह
का प्रज्ञापन करते हों वे न कहे । कुतीर्थी भी कायक्लेश आदि करते हैं- इस प्रकार उनकी प्रशंसा न करे । सावद्य दान की प्रशंसा न करे । ऐसी धर्मकथा न करे जिससे दूसरा कुपित हो । वह वचन के दोषों का वर्जन करे ।
वृत्तिकार ने इन दो चरणों का अर्थ दो प्रकार से किया है
१. जो निदान कर्म-बंध का कारण है, तथा जो प्रवृत्ति (धर्मकथा आदि) निदानयुक्त है - भविष्य के लाभ की आशंसा से युक्त है- महर्षि उसका सेवन न करे ।
५४७
२. जो वाक्प्रयोग सहित और निदानयुक्त है, सुधीरधर्मा व्यक्ति उसको न बोले वह ऐसा न कहे तीविक सावय अनुष्ठान में रत रहते हैं वे तीन रहित और व्रत रहित हैं वे जादू-टोना करने वाले हैं। इस प्रकार दूसरे के दोष को प्रगट करने वाला तथा मर्मभेदी वचन न कहे ।
श्लोक २० :
७७. फोध को (खुद्द)
इसका अर्थ है - क्रोध । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ क्षुद्रत्व - नीचता' किया है और तीसरे चरण की ओर संकेत करते हुए कहा है कि वह पुरुष मार डालने तक की नीचता कर सकता है । "
७८. वक्ता को मार सकता है (आउस्स कालातिया रं)
Jain Education International
जिस प्राणी ने जितना आयुष्य निर्वर्तित किया है, अर्जित किया है, वह उसका आयुष्य काल कहलाता है। अतिचार का अर्थ है-अतिक्रमण करना ।"
१. चूर्ण, पृ० २२५ ।
२. वृत्ति, पत्र २४५ ।
३. चूर्णि, पृ० २२५ :
७६. अनुमान के द्वारा दूसरे के भावों को जानकर (लखाणुमाणे)
इस चरण में धर्मंकथी मुनि के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वह अनुमान आदि के द्वारा परिषद् में उपस्थित लोगों के भावों को जानकर धर्मकथा करे । धर्मकथा करना भी एक कला है । वह पुरुष - विशेष को ध्यान में रखकर करनी
चाहिए।
प्रध्ययन १३ : टिप्पण ७७-७६
पूर्णिकार के अनुसार मुनि धर्मकथा करते समय सतत परिषद् की ओर दृष्टि रखे और जानता रहे कि उसके कथन का किस पर क्या असर हो रहा है ? यह कहा गया है कि मनुष्य के नेत्र और मुंह पर होने वाले परिवर्तनों से उसके अन्तर्मन को जाना जा सकता है, इसलिए मुनि लोगों को सतत देखता रहे। वह सोचे कि जो मैं कह रहा हूं वह परिषद् में उपस्थित व्यक्ति ( या व्यक्तियों) को प्रिय लग रहा है या अप्रिय ? यदि उसे लगे कि उसका कथन अप्रियता पैदा कर रहा है तो यह तत्काल विषय
को मोड़ दे और दूसरे विषय पर व्याख्यान करने लग जाए। वह मत-मतान्तर की बातों को छोड़कर केवल ऐसी बात कहे जिससे स्वयं का और दूसरे का कल्याण हो, जिससे इहलोक और परलोक सुधरे । '
(ख) वृत्ति पत्र २४५ :
४. (क) पूर्ण ० २२५,२२६
,
-
क्षौद्रम् ।
'क्षुद्रत्वम् ।
-
(ख) वृत्ति पत्र २४५ ।
"
५. णि, पृ० २२६ यावन्नाऽकालो नितितः स तस्यायुः कालः अतिचरणमतीवारः ।
६.
णि, पृ० २२६ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org