Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडा १
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अध्ययन १२: प्रामुख इनके ६७ भेद होते हैं । चूणिकार ने मृगचारिका की चर्या करनेवाले, अटवी में रहकर फल-फूल खाने वाले त्यागशून्य संन्यासियों को अज्ञानवादी माना है।'
साकल्प, वाष्कल, बादरायण आदि इस वाद के प्रमुख आचार्य थे। सूत्रकृतांग के वृत्तिकार शीलांकसूरी ने अज्ञानवाद को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है१. अज्ञानी अन्यतीथिक–सम्यग्ज्ञानविरहिताः श्रमणाः ब्राह्मणाः । (वृत्ति पत्र ३५) २. अज्ञानी बौद्ध-शाक्या अपि प्रायशोऽज्ञानिकाः । (वृत्ति पत्र २१७) ३. अज्ञानवाद में विश्वास करने वाला-अज्ञानं एव श्रेय इत्येवं वादिनः । (वृत्ति पत्र २१७)
विनयवाद
विनयवाद का मूल आधार विनय है। ये मानते हैं कि विनय से ही सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। इनके बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं।
आगम साहित्य में विनय शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त है। यहां 'विनय' का अर्थ आचार होना चाहिए। जैसे ज्ञानवादी ज्ञान पर अधिक बल देते हैं, वैसे ही ये विनयवादी आचार पर अधिक बल देते हैं। एकांगी होने के कारण ये मिथ्यावाद की कोटि में परिगणित हैं।
वशिष्ठ, पाराशर आदि इस दर्शन के विशिष्ट आचार्य थे। चूणिकार ने तीसरे श्लोक की व्याख्या में विनयवादियों की मान्यताओं का विशद निरूपण किया है।' इन चारों दार्शनिक परंपराओं की विस्तृत जानकारी के लिए प्रस्तुत अध्ययन के टिप्पण विमर्शनीय हैं । नियुक्तिकार ने भाव समवसरण को दो प्रकार से प्रस्तुत किया है१. औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक-इन छह भावों का समवसरण-एकत्र
मेलापक । २. क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी-इनका समवसरण-एकत्र मेलापक । इस अध्ययन में बावीस श्लोक हैं। उनमें चारों समवसरणों का विवेचन हैश्लोक २-४ अज्ञानवाद
५-१० अक्रियावाद
११-२२ क्रियावाद
अक्रियावादी दर्शन के संबंध में पांचवें श्लोक में द्विपाक्षिक और एकपाक्षिक कर्म का उल्लेख है। चूणिकार ने इसका विशद विवेचन प्रस्तुत किया है । एकपाक्षिक कर्म का अभिप्राय यह है कि क्रियामात्र होती है, कर्म का चय नहीं होता। वह एक पक्ष-एक जन्म में भोग लिया जाता है । द्विपाक्षिक कर्म का अभिप्राय है कि उसमें कर्म-बंध होता है और वह इस जन्म या पर जन्म में भगतना पड़ता है। कुछ अक्रियावादी एकपाक्षिक कर्म को मानते हैं और कुछ द्विपाक्षिक कर्म को।'
___ नौवें-दसवें श्लोक में अष्टांगनिमित्त के केवल पांच अंगों का स्पष्ट निर्देश है, शेष उनके अन्तर्भूत हैं। चूर्णिकार ने अष्टांगनिमित्त के ग्रन्थमान का भी उल्लेख किया है। १. चूर्णि, पृ० २०७ : ते तु मिगचारियादयो अडवीए पुष्फफलमक्खिणो अच्चादि (अस्यागिनः) अण्णाणिया । २. षड्दर्शनसमुच्चय, वृत्ति, पृ० २६ । ३. देखें-टिप्पण-७.६। ४. नियुक्ति गाथा ११० : भावसमोसरणं पुण, णायव्वं छव्विहम्मि भावम्मि ।
अधवा किरिय अकिरिया, अण्णाणी चेव वेणइया ॥ ५. देखें--श्लोक ५ का टिप्पण, संख्या १२ ।
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