Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन १२ : टिप्पण २-७
आचार के नियमों का पालन करने मात्र से शील-शुद्धि होती है-ऐसा मानते थे, उन्हें 'सीलब्बतपरामास' कहा गया है । केवल ज्ञानवादी और केवल आचारवादी - ये दोनों धाराएं उस समय प्रचलित थीं। विनयवाद के द्वारा एकान्तिक आचारवाद की दृष्टि का निरूपण किया गया है। विनम्रतावाद आचारवाद का ही एक अंग है, इसलिए उसका भी इसमें समावेश हो जाता है । किन्तु विनयवाद का केवल विनम्रतापरक अर्थ करने से आचारवाद का उसमें समावेश नहीं हो सकता ।
२. समवसरण (समोसरणाणि)
समवसरण का अर्थ है-वाद-संगम । जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं । '
३. प्रावादुक (प्रावाया )
प्रावादुक का अर्थ है - प्रवक्ता, किसी दर्शन का प्रतिपादन करने वाला ।'
श्लोक २ :
४. सम्मत नहीं है (असंधुया)
असंस्तुत का अर्थ है - असम्मत । जिनका सिद्धान्त लौकिक परीक्षकों के द्वारा भी सम्मत न हो, जो समस्त शास्त्रों से बाहिर हो, मुक्त हो, वह सिद्धान्त या दर्शन असंस्तुत कहलाता है।"
वृत्तिकार ने इसका अर्थ - असंबद्धभाषी किया है ।"
५. संशय का ( वितिगिच्छ )
विचिकित्सा का अर्थ है-वितविलुप्ति, वित्तभ्रांति, संजाय ।"
६. मृषा बोलते हैं (मुलं वदंति )
चूर्णिकार ने शाक्यों को भी प्रायः अज्ञानवादी माना है। शाक्यों की मान्यता है कि अविज्ञानोपचित कर्म नहीं होता । इसलिए जो बालक, मत्त या सुप्त हैं, उनका ज्ञान स्पष्ट नहीं होता अतः उनके कर्म-बंध नहीं होता । वे सब अज्ञानी हैं । जैसा शास्त्रों में लिखा है वैसा ही वे शाक्य उपदेश करते हैं। 'अज्ञान' से बंध नहीं होता यह मान्यता उनके शास्त्रों में निबद्ध है ।" इस दृष्टि से वे मृषा लोलते हैं ।
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श्लोक ३
:
७. श्लोक ३ :
प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरण अज्ञानवादी मत के और शेष दो चरण विनयवादी मत के प्रतिपादक हैं। चूर्णिकार का यह १. धम्मसंगणि [ना० सं ], पृ० २७७ तत्थ कतमो सीलब्बतपरामासो ? इतो बहिद्धा समण-ब्राह्मणानां सीलेन सुद्धिवतेन सुद्धि सीलब्बतेन सुद्धी ति-या एवरूपा बिट्ठि विद्विगतं ये० विपरियासम्गाहो - अयं युपपति सीलम्बत परामासो ।
२. चूर्ण, पृ० २०७ : समवसरंति जेसु दरिसणाणि विट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि ।
३. चूर्ण, पृ० २०७ : प्रवदन्तीति प्रावादिकाः ।
४. चूर्ण, पृ० २०८ : असंयुता णाम ण लोइयपरिवखगाणं सम्मता सव्वसत्थबाहिरा मुक्का ।
५. वृत्ति, पत्र २१६ : 'असंस्तुता' - अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंवादितया असंबद्धाः ।
६ वृत्ति पत्र २१६ विचिकित्सा-चित्तविलुप्तिविभ्रान्तिः संशीतिः ।
७. (क) चूणि, पृ० २०८ : शाक्या अपि प्रायश: अज्ञानिकाः येषामविज्ञानोपचितं कर्म नास्ति, जैसि च बाल-मत्त सुत्ता अकम्मबद्धगा, ते सव्व एव अण्णाणिया । सस्यधम्मता सा तसि जध चेव ठितेल्लगा तध चेव उवदिसंति, जधा - अण्णाणेण बंधो णत्थि, सह चैव ताणि सक्ष्याणि णिबद्धाणि ।
(ख) वृत्ति पत्र २१७।
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