Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
६६. (परितप्यमाणे
अजराऽमरेव्व )
वह मनुष्य अजर-अमर की भांति आचरण करता हुआ दिन-रात संतप्त होता है । मम्मण बनिए की भांति वह धन की कामना से सतत संतप्त रहता हुआ शरीर, मन और वाणी को भी क्लेश देता है ।
'अजरामरवद् बालः क्लिश्यते धनकाम्यया ।
शाश्वतं जीवितं चैव मन्यमानो धनानि च ॥
६७. छोटे पशु (खुद्द मिगा )
वह अज्ञानी मनुष्य जीवन और धन को शाश्वत मानता है और अपने आपको अजर और अमर मानकर धन की कामना से क्लेश पाता है । "
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मृग पद के दो अर्थ हो सकते हैं- पशु और हरिण ।
६८. डरकर ( परिसंकमाणा )
श्लोक २० :
चूर्णिकार ने क्षुद्र शब्द के द्वारा व्याघ्र, भेड़िया और चीता का और 'मृग' शब्द से विभिन्न जाति वाले हरिणों का ग्रहण किया है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने क्षुद्रमृग को समस्त शब्द मान कर उसका अर्थ हरिण किया है ।"
वृत्तिकार ने हरिण आदि छोटे-छोटे जंगली पशुओं को 'क्षुद्रमृग माना है ।"
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अध्ययन १० टिप्पण ६६-७१
जंगल में मृग आदि छोटे पशु दूर-दूर तक चरते रहते हैं। वायु के द्वारा प्रकंपित होने वाले तृणों को देखकर वे सिंह की आशंका कर आकुल व्याकुल हो जाते हैं। वे सदा भय की स्थिति में रहते है और सशंकित जीवन बिताते हैं ।
६६. दूर रहते हैं (दूरे चरंती)
जंगल में मृग आदि छोटे पशु सिंह, व्याघ्र आदि से डर कर दूर-दूर चरते हैं। सिंह आदि उनको देख भी न पाए, उनकी गंध भी न ले पाए, इस प्रकार वे दूर-दूर रहते हैं । अथवा वे उस क्षेत्र का परित्याग भी कर देते हैं ।"
श्लोक २१ :
२.
६. पूर्ण पृ० १२१ कि संयुक्झमाणे ? समाधिधम्मं ।
७. वृत्ति
७०. समाधि को जानकर (संयुक्झमाणे)
इसका अर्थ है - समाधि-धर्म को जानता हुआ । वृत्तिकार ने इसका तात्पर्य यह माना है – मुनि श्रुत चारित्ररूप धर्म या भाव-समाधि को समझकर, शास्त्र - विहित अनुष्ठान में प्रवृत्ति करता हुआ
७१. दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं (सिम्पसूताणि दुहाणि )
'दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं,' इसका तात्पर्य है कि हिंसा आदि की प्रवृत्ति से पाप कर्म का बंध होता है और उसके विपाक
१. वृत्ति, पत्र १९५ : द्रव्यार्थी परितप्यमानो मम्मणवणिग्वदार्तध्यायी कायेनापि क्लिश्यते, तथा चोक्तम्- 'अजरामरवद्वाल: २. पूर्ण, पृ० १११ द्राः मृगाः सुमृगाः व्यानरु द्वीपिकादयः मृदा रोहिताश्च अथवा स एव क्षुद्रमृगः । ३. पित्र १०६ मृगाः सुदारव्यपशवो हरिणजात्याद्याः ।
४. (क) चूर्णि, पृ० १६१ : अपि वातकम्पितेभ्यस्तृणेभ्योऽपि सिंहमयादुद्विग्नाश्चरन्ति ।
(ख) वृत्ति, पत्र १९६ ।
०११ति अदर्शनेनायन्येन वा परित्यागेन च ।
१२६ सम्यकृतचारित्रास्यं धर्म भावसमाधि वा बुध्यमानस्तु विहितानुष्ठाने प्रवृतिः ।
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