Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूयगडो १
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१. जितेन्द्रिय ।
२. आत्मा ।
३. मोक्ष मार्ग (ज्ञान-दर्शन- चारित्र) की अनुपालना में समर्थ ।
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं'--
१. जितेन्द्रिय ।
२. संयम के आवारक कर्मों को तोड़कर मोक्ष मार्ग का पालन करने में समर्थ ।
२०. दोषों ( क्रोध आदि) का ( दोसे)
चूर्णिकार ने क्रोध आदि को दोष माना है और वृत्तिकार ने पांच आस्रव द्वारों - मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को दोष माना है।' प्रकरण के अनुसार 'दोष' का अर्थ द्वेष प्रतीत होता है । मनुष्य द्वेष के कारण दूसरों के साथ विरोध करता है । इसीलिए बतलाया गया है कि द्वेष का निराकरण कर किसी के साथ विरोध न करे ।
२१. निराकरण कर (निराकिन्या)
अध्ययन ११ टिप्पण २०-२४
चूर्णिकार ने 'णिरे किच्चा' पाठ की व्याख्या की है। 'णिरे' अव्यय है । इसका अर्थ है- पीठ पीछे ।"
श्लोक १३ :
२२. संवृत (संवडे)
संवृत का अर्थ है - प्राणातिपात आदि आस्रवों को रोकने वाला अथवा इन्द्रिय और मन का संवरण करने वाला ।" २३. एषणा समिति से युक्त (एसणासमिए)
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एसणा के तीन प्रकार हैं
१ गवेषणा - भिक्षा की खोज में निकलकर मुनि आहार के कल्प्य अकल्प्य के निर्णय के लिए जिन नियमों का पालन करता है अथवा जिन दोषों से बचता है उसे गवेषणा कहते हैं ।
२. ग्रहणैषणा - आहार को ग्रहण करते समय जिन नियमों का पालन करना होता है, उसे ग्रहणषणा कहते हैं ।
३. प्रासंषणा या परिभोगंषणा प्राप्त आहार को खाते समय जिन नियमों का पालन किया जाता है, वह है ग्रासपणा या परिभोगषणा ।
श्लोक १४ :
२४. जीवों का (नुयाई)
भूत का अर्थ है- प्राणी जो प्राणी अतीत में वे वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे, वे भूत कहलाते हैं-यह टीकाकार का अभिमत है । "
१. वृत्ति, पत्र २०४ : इन्द्रियाणां प्रभवतीति प्रभुर्वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, यदि वा संयमावारकाणि कर्माण्यभिभूय मोक्षमार्गे पालयितव्ये प्रभुः —समर्थः ।
२. णि, पृ० १६८ : दोषाः क्रोधादयः ।
३. वृत्ति पत्र २०४ दूषयन्तोति दोषामिच्यात्याविरतिप्रमादकषाययोगास्तान् ।
४. चूर्ण, पृ० ११८ : निरे इति पृष्ठतः कृत्वा ।
५. णि. पृ० ११८ हिसाद्याचयसंयुतः इंडिय-गोदियाबुद्ध था।
६. वृत्ति, पत्र २०४ : अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि - प्राणिनः ।
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