Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अ० ११ : मार्ग : श्लोक ८-१६
८. इनके अतिरिक्त त्रस जीव हैं । इस प्रकार छह जीवकाय बतलाए गए हैं। जीव-काय इतने ही हैं। इनसे अतिरिक्त कोई जीव-काय नहीं है।"
सूयगडो। ८. अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया। इत्ताव एव जीवकाए
णावरे विज्जती कए॥ ६. सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं
मइमं पडिलेहिया। सव्वे अकंतदुक्खा य
अतो सब्वे अहिंसया ॥ १०. एयं खु णाणिणो सारं
जं ण हिंसति कंचणं। अहिंसा समयं चेव एतावंतं विजाणिया ॥
अथापरे त्रसाः प्राणाः, एवं षटकाया आहृताः । एतावान् एव जीवकाय:, नापरो विद्यते कायः॥ सर्वाभिरनुयुक्तिभिः, मतिमान् प्रतिलेख्य । सर्वे अकान्तदुःखाश्च, अतः सर्वे अहिंस्याः॥ एतद् खल ज्ञानिनः सारं, यत् न हिंसति कंचन । अहिंसां समतां चैव, एतावन्तं विजानीयात् ॥
६. मतिमान् मनुष्य सभी अनुयुक्तियों" (सम्यक् हेतुओं) से जीवों की पर्यालोचना करे। सब जीवों को दुःख अप्रिय है" इसलिए किसी की भी हिंसा न करे ।
१०. ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा
नहीं करता । 'समता अहिंसा है"- इतना ही उसे जानना है।
११. उड्ढे अहे तिरियं च
जे केइ तसथावरा। सव्वत्थ विरति कुज्जा संति णिव्वाणमाहियं ॥
ऊवं अधः तिर्यग च, ये केचित् प्रसस्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्यात्, शान्तिनिर्वाणमाहृतम् ॥
११. ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में जो कोई त्रस और
स्थावर प्राणी हैं, सब अवस्थाओं में उनकी हिंसा से विरत रहे । (विरति ही शांति है और) शान्ति ही निर्वाण है।
१२. पभू दोसे णिराकिच्चा
ण विरुज्झज्ज केणइ। मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो॥
प्रभर्दोषान् निराकृत्य, न विरुध्येत केनचित् । मनसा वचसा चैव, कायेन चैव अन्तशः॥
१२. जितेन्द्रिय पुरुष" दोषों (क्रोध आदि) का निरा
करण कर" मनसा, वाचा, कर्मणा आजीवन किसी के साथ विरोध न करे।
१३. संवुडे से महापण्णे
धीरे दत्तेसणं चरे। एसणासमिए णिच्चं वज्जयंते अणेसणं॥
संवतः स महाप्राज्ञः, धीरो दत्तषणां चरेत् । एषणासमितो नित्यं, वर्जयन् अनेषणाम् ।।
१३. संवृत, महाप्राज्ञ, धीर मुनि दत्त की एषणा करे।
वह नित्य एषणा समिति से युक्त हो अनेषणीय का वर्जन करे।
१४. भूयाइं समारंभ
साधू उद्दिस्स जं कडं। तारिसं तु ण गेण्हेज्जा अण्णपाणं सुसंजए॥
भूतानि समारभ्य, साधून् उद्दिश्य यत्कृतम् । तादृशं तु न गृह्णीयात्, अन्नपानं सुसंयतः ।।
१४. जीवों का समारंभ कर साधु के उद्देश्य से जो
किया गया हो वैसे अन्न-पान को सुसंयमी मुनि ग्रहण न करे ।
१५. पूतिकम्मं ण सेवेज्जा
एस धम्मे वसीमतो। जं किंचि अभिसंकेज्जा सव्वसो तं ण कप्पते ॥
प्रतिकर्म न सेवेत, एष धर्मः वृषीमतः । यत् किञ्चिद् अभिशंकेत, सर्वशस्तद् न कल्पते ।।
१५. पूतिकर्म (अन्न-पान) का सेवन न करे । यह संयमी
का धर्म है। जो कुछ (अन्न-पान अनेषणीय रूप में) शंकित हो, उसका सर्वथा उपभोग न करे।
१६. ठाणाई संति सड्ढीण
गामेसु णगरेसु वा। अस्थि वा णत्थि वा धम्मो? अत्थि धम्मो त्ति णो वते॥
स्थानानि सन्ति श्रद्धिनां, ग्रामेषु नगरेषु वा । अस्ति वा नास्ति वा धर्मः, अस्ति धर्म इति नो वदेत् ॥
१६. गावों या नगरों में श्रद्धालुओं के स्थान होते हैं ।
(वहां किसी श्रद्धालु के पूछने पर कि ब्राह्मण और भिक्षु को भोजन कराते हैं उसमें) धर्म है या नहीं ?, (इसके उत्तर में) धर्म है-यह न कहे।
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