Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो।
अध्ययन ६ : टिप्पण १८-२४ चूर्णिकार ने इस अवसर पर भैंस, बकरी आदि मारे जाने का भी उल्लेख किया है।' १५. उसके धन का हरण कर लेते हैं (हरंति तं वित्तं)
व्यक्ति के मर जाने पर उसके ज्ञातिजन उसका मरणकृत्य संपन्न कर यह सोचते हैं कि हम इस मृत व्यक्ति के धन से विषयों का सेवन करेंगे । वे उसके धन का हरण कर लेते हैं । अ-ज्ञातिजन दास, भृत्य आदि भी उस धन को हड़पने की बात सोचते हैं । मरने वाले व्यक्ति के निःसंतान होने पर राजा उसका समूचा धन ले लेता है। हरण करना, विभक्त करना, अर्पण करना-ये एकार्थक हैं।'
श्लोक ५:
१६. छेदा जाता हं (लुप्पंतस्स)
शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीडित ।' २०. श्लोक ५: तुलना करें- उत्तरझणाणि ६।३ :
माया पिया ण्हुसा माया, मज्जा पुत्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥
श्लोक ६
२१. परमार्थ की ओर ले जाने वाले (परमट्ठाणुगामियं)
चूर्णिकार ने परमार्थ के दो अर्थ किए हैं—(१) मोक्ष, (२) ज्ञान आदि ।' वृत्तिकार ने इसके मोक्ष और संयम-ये दो अर्थ किए हैं। परमार्थ का अनुगमन करने वाला ‘परमार्थानुगामिक' होता है । २२. समझकर (सपेहाए)
यहां 'सं' शब्द के अनुस्वार का लोप किया गया है। इसका अर्थ है-संप्रेक्षा कर, विचार कर, समझकर ।
वृत्तिकार ने इसके स्थान पर 'स पेहाए' (सः प्रेक्ष्य) माना है।' २३. ममता (से शून्य) (णिम्ममो)
जिसकी स्त्री, मित्र, धन, आदि बाह्य वस्तुओं में तथा आभ्यन्तर परिग्रह में ममता नहीं है, वह निर्मम होता है।' २४. अहंकार से शून्य (णिरहंकारो) - इसका अर्थ है-अहंकार शून्य । व्यक्ति में प्रवजित होने से पूर्व के अपने ऐश्वर्य का मद होता है, जाति का अहंकार होता है १. चूणि, पृ० १७६ : महिष-च्छागाद्याश्च वध्यन्ते । २. चूर्णि, पृ० १७६ : मरणकृत्यम् ......'काऊण तं पणिधाय ये तस्य भ्रातृपुत्रादयो दायादा जीवन्ति शब्दादिविषयैषिणः अनेन
मृतधनेन वयं भोगान् भोक्ष्यामहे, अज्ञातयोऽपि दास-भृत्य-मन्त्र्यादयः तत् च्युतधनं तर्कयन्ति, अपुत्राणां च मृतकटं
राजा गृह्णाति। ३. चूर्णि, पृ० १७६ : हरंति वा विभयंति वा मेति वा एगळं। ४. चूणि, पृ० १७६ : लुप्यमानस्येति शारीर-मानसर्दुःख-दौमनस्यः । ५. चूणि, पृ० १७६ : परमः अर्थः परमार्थः मोक्ष इत्यर्थः ....... ज्ञानादयो वा परमार्थः । ६. वृत्ति पत्र १७८ : परम:-प्रधानभूतो (ऽर्थो) मोक्षः संयमो वा तमनुगच्छतीति तच्छीलश्च परमार्थानुगामुकः । ७. वृत्ति, पत्र १७८ । ८. चूणि, पृ. १७६ : नास्य कलत्र-मित्र-वित्ताविषु बाह्या-ऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु ममता विद्यते इति निर्ममः ।
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