Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन ६ : टिप्पण ७७ चूर्णिकार ने इसकी दो व्याख्याएं की हैं१. जिस उत्पादन दोष (धर्मकथा या संस्तव या आजीववृत्ति या दैन्य) के द्वारा अन्न-पान लिया जाता है, उससे संयम
निर्गमन करता है, इसलिए ऐसा न करे । २. जिससे इहलौकिक कार्य निष्पन्न होता है अथवा मित्र-कार्य पूरा होता है ---यह मुझे इसके बदले में कुछ देगा, परित्राण
करेगा, मेरा भार उठायेगा आदि-आदि इहलौकिक कार्य के निर्वाह को ध्यान में रखकर दूसरों को अन्न-पान न दे। वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ प्रस्तुत किए हैं१. जिस (शुद्ध अथवा कारणवशगृहीत अशुद्ध) अन्न-जल से मुनि इस लोक में अपनी संयम यात्रा (दुभिक्ष या रोग, आतंक
आदि) का निर्वाह करता है, वैसा ही अन्न-जल दूसरे मुनियों को दे । २. जो अन्न-जल संयम को निस्सार करता है, वह न ले। तथा यह अशन आदि गृहस्थों, परतीथिकों और संयमोपघातक
होने के कारण स्वतीथिकों को भी न दे । इस प्रवृत्ति को परिज्ञा से जानकर, इसका सम्यक् परिहार करे ।
वृत्तिकार के दोनों अर्थों में कोई मेल नहीं है । हमने इसका अर्थ निशीथ सूत्र के आधार पर किया है। वहां बतलाया गया है-जो भिक्षु अन्यतीर्थिक और गृहस्थ के द्वारा अपना भार उठाता है, उठाने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । जो भिक्षु 'यह मेरा भार उठाता है, इस दृष्टि से अन्यतीथिक या गृहस्थ को अशन, पान खाद्य या स्वाद्य देता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।'
सूत्रकृतांग चूणि में निशीथ के इन दो सूत्रों का आधार प्राप्त है । दोनों चूणियों (सूत्रकृत और निशीथ) में अद्भूत शब्द साम्य भी है--वहिस्सति वा मे किञ्चिद् उवगरणजातं-सूत्रकृत चूणि पृ० १८० ।
ममेस उवकरणं वहेइ त्ति पडुच्च- निशीथ चूणि, भाग ३, पृ० ३६३ ।
निशीथ भाष्य और चूणि में अन्यतीथिक और गृहस्थ को अशन, पान आदि देने में अनेक दोष बतलाए गए हैं-भगवान् गौतम ने वर्द्धमान महावीर से पूछा-'भते !' बालपुरुषों का बलवान् होना श्रेय है या दुर्बल होना श्रेय है ? भगवान महावीर ने कहा- 'दुर्बल होना श्रेय है, बलवान् होना श्रेय नहीं है । बलवान होने का मूल कारण आहार है । वह गृहस्थ साधु से आहार प्राप्त कर बहुत कलह-लड़ाइयां करता है, पानी पीता है, आचमन करता है, भुक्त आहार का बमन करता है, उसके रोग पैदा होता है, 'साधु ने मुझे कुछ ऐसा खाने को दिया जिससे रोग पैदा हो गया'-इस प्रकार अपवाद करता है अथवा वह मर जाता है-इन अनेक दोषों की संभावना को ध्यान रख कर मुनि गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से भार न उठाए और न उन्हें अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य दे। १. चूणि, पृ० १८०: जेणेति जेण धम्मकधाए वा संथवेण वा आजीव-वगीमगत्तेण वा अण्णतरेण वा उप्पातणादोसेणं, अण्णहेतुं वा पाणहेतुं
वा पयुंजमाणेण इमा ओवम्मा, णिव्वहति निर्वहति नाम निर्गच्छति तन्न कुर्यात् । अधवा जेणिह णिव्वाहेति येनास्य इहलौकिक किञ्चिद कार्य निष्पद्यते मित्रकार्य वा, प्रतिदास्यति वा मे किञ्चिद्, परित्रास्यति वा, वहिस्सति वा मे किञ्चिद् उवगरणजातं,
एवमादिकं किञ्चिदिहलोककार्यनिर्वाहक साधकमित्यर्थः, तं पडुच्च, अण्णं वा। २. वृत्ति, पत्र १८२ : 'येन' अन्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धेन कारणापेक्षया त्वशुद्धेन वा 'इह'-अस्मिन् लोके इदं संयमयात्रादिकं दुभिक्षरोगातङ्कादिकं वा भिक्षुः निर्वहेत् निर्वाहयेद्वा तदन्नं पानं वा तथाविधं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया शुद्धं-कल्पं गृहीयातथैतेषाम् – अन्नादीनामनुप्रदानमन्यस्मै साधवे सयमयात्रानिर्वहणसमर्थमनुतिष्ठेत् यदि वा-येन केनचिदनुष्ठितेन 'इम' संयम 'निर्वहेत्'- निर्वाहयेद् असारतामापादयेत्तथाविधमशनं पानं वाऽन्यद्वा तथाविधमनुष्ठानं न कुर्यात्, तथतेषामशनादीनाम् 'अनुप्रदान'
गृहस्थानां परतीथिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नानुशीलयेदिति, तदेतत्सर्व ज्ञपरिजया ज्ञात्वा सम्यक् परिहरेदिति । ३. निशीथ १२०४१, ४२ : जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा उहि वहावेति, वहावेतं वा सातिज्जति ।
जे भिक्खू तण्णीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देति, बेंतं वा सातिज्जति । ४. निशीथ भाष्य गाथा ४२०६ : दुब्बलियत्तं साहू, बालाणं तस्स भोयणं मूलं ।
वगघातो अपि पियणे, दुगुछ वमणे कयुवाहो ॥ चूणि, तृतीयो विभाग पृ० ३६३ :
भगवता गोयमेण महावीरवद्धमाणसामी पुच्छितो-'एतेसि णं भंते ! बालाणं कि बलियत्तं सेयं ? दुबलियत्तं सेयं ?' भगवया वागरियं-'दुब्बलियत्त सेयं, बलियत्तं अस्सेयं ।' तस्स य बलियत्तणस्स मूलं आहारो सो य साहूसमोवे आहारं आहारेत्ता बहूणि अधिकरणाणि करेज्ज, उदगं वा पिएज्ज, आयमेज्ज वा, भुत्तो वा दुगुंछाए वमेज्ज, रुयुप्पातो वा से हवेज्ज । संजएहि एरिसि किपि मे दिन्नं जेण रोगो जाओ एवं उड्डाहो मरेज्ज वा ।......"तम्हा गिहत्यो अन्नउत्थिओ वा ण वाहेयव्वो, ण वा असणादी दायव्वं ।
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