Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
४१८
अध्ययन ६: टिप्पण १०४-१०७ जो क्रोध से कांप उठता है, अग्नि की भांति जल उठता है, आक्रोश के प्रति आक्रोश और हनन के प्रति हनन करता है। यह संज्वलन का फल है। १०४. शान्त मन रहकर (सुमणो)
स-मन का अर्थ है-अच्छा मन । जो शान्त मन वाला होता है, जिसके मन में राग-द्वेष की कलुषता नहीं होती वह सुमना होता है। १०५. कोलाहल (कोलाहलं)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं:१. जोर-जोर से चिल्लाना। २. राज्य अधिकारियों के समक्ष शिकायत करना।
श्लोक ३२
१०६. लब्ध कामभोगों की इच्छा न करे (लद्धे कामे ण पत्थेज्जा)
मुनि प्राप्त कामभोगों की इच्छा न करे । कोई उपासक मुनि को वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शयन, आसन के लिए निमंत्रण दे तो वह उनमें गृद्ध न हो, उनको पाने या भोगने की अभिलाषा न करे।
चूर्णिकार ने यहां चित्त (उत्तरा० अध्ययन १३) के आख्यान की और वृत्ति कार ने वैरस्वामि के आख्यान की सूचना दी है।'
चूणिकार और वृत्तिकार ने 'लद्धी कामे' यह पाठान्तर मानकर इसका अर्थ इस प्रकार किया है--मुनि को विशेष तप से अनेक लब्धियां प्राप्त हो सकती हैं, जैसे-आकाश में उड़ने की लब्धि, विक्रिया की शक्ति, अक्षीणमहानस, आदि-आदि । मुनि इनका उपयोग न करे । वह अपनी विशेष शक्तियों से कामभोगों को प्राप्त कर सकता है, परन्तु यह उसके लिए विहित नहीं है ।
मुनि इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों प्रकार के कामभोगों की कामना न करे । चूणिकार और वृत्तिकार ने यहां ब्रह्मदत्त के आख्यान की सूचना दी है।
देखें-उत्तराध्ययन सूत्र का तेरहवां अध्ययन तथा उस अध्ययन का आमुख । १०७. बुद्धों (ज्ञानियों) के (बुद्धाणं)
बुद्ध का अर्थ है-गणधर आदि विशिष्ट पुरुष या जिस समय में जो आचार्य हों, वे ।'
१. चूर्णि, पृ० १८२ : सुमणो णाम राग-द्दोसरहितो। २. चूर्णि, पृ० १८२ : उक्कुठ्ठिबोलं वा करेज्ज रायसंसारियं वा । ३. (क) चूणि, पृ० १८२ : लद्धा णाम जाणं कोइ वत्थ-गंध-अलंकार-इत्थी-सयण-असणादीहि णिमंतेज्ज बस्थ ण गिज्झज्ज, जधा
चित्तो। (ख) वृत्ति, पन १८४,१८५ : 'लब्धान्'–प्राप्तानपि 'कामान्'- इच्छामदनरूपान् गन्धालङ्कारवस्त्राविरूपान्वा वैरस्वामिवत् 'न
प्रार्थयेत्-नानुमन्येत्-न गृह्णीयादित्यर्थः। ४. (क) चूणि, पृ० १८२ : अधवा 'लद्धीकामे तवोलद्धीओ आगासगमण-विउव्वादीओ अक्खीणमहाणसिगादीओ य ण दाव उवजीवेज्ज,
ण य अणागते । इहलौकिके एना एव वत्थ-गंधादी, परलोगिगे वा जधा बंभवत्तो तधा ण पत्थेज्ज । (ख) वृत्ति, पत्र १८५ : यत्रकामावसायितया गमनादिलब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेषलब्धानपि नोपजीव्यात, नाप्यनागतान् ब्रह्मदत्तवत्
प्रार्थयेन् । ५. चूणि, पृ० १८२ : सुठ्ठ बुद्धा सुबुद्धा गणधराद्याः, यधा यदाकालमाचार्या भवन्ति ।
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