Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूपगडो १
श्रावक ।'
६. क्षत्रिय (खत्तिया)
उग्र, भोग, राजन्य और इक्ष्वाकु—ये क्षत्रिय कहलाते हैं। इसका वैकल्पिक अर्थ है-क्षत्र धर्म से जीने वाले क्षत्रिय
होते हैं।
७. वैश्य (वेस्सा)
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वैश्य का अर्थ है - व्यापार करने वाला । चूर्णिकार ने इसका अर्थ स्वर्णकार आदि किया है । "
८. बोक्स (जोक्स)
उत्पन्न संतान अम्बष्ठ और निषाद के प्राप्त होते हैं-बुक्कस, पुष्कस, पुक्कस
इसका अर्थ है - वर्णशंकर जाति । ब्राह्मण के द्वारा शुद्री से उत्पन्न संतान निषाद, ब्राह्मण के द्वारा वैश्य जाति की स्त्री से द्वारा अम्बष्ठ जाति की स्त्री से उत्पन्न संतान 'बोक्कस' कहलाती है। इसके चार संस्कृत रूप और पुल्कस
"
विशेष विवरण के लिए देखें— उत्तरन्यषाणि ३/४ का टिप्पण
६. बहेलिए (एसिया)
इसका शाब्दिक अर्थ है- ढूंढने वाले । मांस के लिए मृग को तथा हाथी को ढूंढने वाले व्याध तथा हस्तितापस 'एषिक'
कहलाते हैं।
११. शूद्र (सुहा)
अध्ययन टिप्पण ६-१२
अथवा जो अपने भोजन के लिए कन्द-मूल आदि ढूंढते हैं या जो दूसरे पावण्डी लोग विविध उपायों से भिक्षा की एषणा करते हैं, विषयपूर्ति के साधनों को ढूंढते हैं वे भी 'एषिक' कहलाते हैं । "
१०. व्यापारी (वेसिया )
इसके दो अर्थ है-वणिक् अथवा या वे अपनी विभिन्न कलाओं से जीविका उपार्जन करते हैं।"
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वृत्तिकार ने इसका अर्थ खेती करने वाले अहीर जाति के लोग किया है ।"
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१२. हिसारत हैं ( आरंभणिस्सिया )
इसका अर्थ है ----हिंसा में रत । चूर्णिकार ने छेदन, भेदन, पाचन आदि क्रियाओं तथा वृत्तिकार ने यंत्रपीडन, निलांछन, १. चूणि, पृ० १७५ : माहणा मरुगा सावगा वा ।
२. चूर्ण, पृ० १७५ : खत्तिया उग्गा भोगा राहण्णा इक्खागा राजानस्तदाश्रयिणश्च । अथवा क्षत्रेण धर्मेण जीवन्त इति क्षत्रियाः । २. वृषि, पृ० १७५ श्याः सुवर्णकारादयः ।
४. चूर्ण, पृ० १७५ : बोक्कसा णाम संजोगजातिः । जहा - बंभणेण सुद्दीए जातो जसादोत्ति युच्चत्ति, बंभणेण वेस्सजातो अम्बो बुच्चत्ति, तत्थ मिसाएणं अंबट्ठीए जातो सो बोक्कसो बुच्चति ।
५ अभिधान चिन्तामणि कोष, ३ / ५९७ ।
६. (क) पुर्णि, १० १०५ एलीति एचिकाः मृनुब्धका हरिततापसारय मांगोंगा हस्तिनश्च एवन्ति मूलकन्द-ये चापरे पाषण्डाः नानाविधैरुपायैभिक्षामेषन्ति यथेष्टानि विषयसाधनानि ।
(ख) वृत्ति पत्र १७७ ।
७. (क) चूर्णि, पृ० १७५ : अथ वैशिका वणिजः, तेsपि किल कलोपजीवित्वाद् धर्मं किल कुर्वते । अथवा वेश्यास्त्रियो वैशा
किल सर्वाविशेषा
वर्तमाना धर्म कुर्वन्ति (ख) वृत्ति, पत्र १७७ : तथा वैशिका वणिजो मायाप्रधानाः कलोपजीविनः ।
८.
वृत्ति, पत्र १७७ : शूद्राः कृषीबलादयः आभीरजातीयाः ।
६. चुणि, पृ० १७५ : छेदन-भेदन- पचनादिदव्व-भावारंभे णिस्सिता नियतं सिता णिस्सिता ।
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