Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडी १
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प्रध्ययन ६: टिप्पण २५-२८
अथवा अपने ज्ञान का, तपस्या का, स्वाध्याय का अहंकार होता है अथवा अपनी विशिष्ट शक्तियों का अभिमान होता है । जो इन सबसे शून्य है वह 'निरहंकार' होता है।'
श्लोक ७:
२५. आन्तरिक स्रोत (क्रोध आदि) (अंतगं सोयं)
चुणिकार ने यहां 'अत्तगं सोयं' की व्याख्या की है। इसका अर्थ है-आत्मा में होने वाला सात-द्वार । उनके अनुसार ये आत्मक स्रोत हैं-मिथ्यात्व, कषाय, अज्ञान, अविरति ।
वृत्तिकार ने 'अन्तगं' के दो अर्थ किए हैं--दुष्परित्यज्य और विनाशकारी।' उन्होंने 'सोय' का मुख्य अर्थ शाक, अनुताप किया है और गौण अर्थ श्रोत किया है।' उन्होंने वैकल्पिक रूप में 'अत्तग' पाठ की भी व्याख्या की है।' २६. अपेक्षारहित हो परिव्रजन करे (णिरवेवखो परिव्वए)
साधक पुत्र, स्त्री, माता-पिता, धन, धान्य आदि से निरपेक्ष होकर, उनकी अपेक्षा न रखता हुआ संयमचर्या करे । जो निरपेक्ष नहीं होता वह पग-पग पर दुःख पाता है। उसके संकल्प-विकल्प बढते हैं और वह उन्हीं संकल्पों में फंस जाता है । कहा भी है
'छलिया अवयक्खंता निरावयक्खा गया अविग्घेणं ।
तम्हा पवयणसारे निरावयखेण होयव्वं ।। जिन्होंने अपेक्षा रखी, वे ठगे गए, किन्तु जो निरपेक्ष रहे वे निविघ्न रूप से पार चले गए। अत: जो साधक प्रवचन के सार को जानता है वह सदा निरपेक्ष रहे, कहीं अपेक्षा न रखे।
"भोगे अवयक्खंता पडंति संसारसायरे घोरे ।
भोगेहि निरवयक्खा तरंति संसारकांतारं ॥' जो भोगों की अपेक्षा रखते हैं वे इस घोर संसारसागर में डूब जाते हैं और जो भोगों से निरपेक्ष रहते हैं बे संसार रूपी कांतार को पार कर जाते हैं।'
श्लोक:
२७. मूल से बीज तक वनस्पति के दस प्रकार (सबीयगा)
सबीजक अर्थात् वनस्पति की मूल से लेकर बीज तक की दस अवस्थाएं । वे ये हैं-बीज, मूल, कंद, स्कंध, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल और बीज ।
श्लोक १०: २८. बहिस्तात् (बाह्य वस्तु का ग्रहण) (बहिद्धं)
यह बहिद्धादान का संक्षेप है। इसका शाब्दिक अर्थ है-बाह्य वस्तु का ग्रहण । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के चातुर्याम धर्म में चौथा है-बहिद्धादान । इस शब्द के द्वारा-मैथुन और परिग्रह-दोनों का ग्रहण होता था । स्त्री भी बाह्य वस्तु है। १. चूणि, पृ० १७६ : न चाहङ्कारः पूर्वैश्वर्य-जात्यादिषु च संप्राप्तेष्वपि, तपः स्वाध्यायादिषु । २. चूणि, पृष्ठ १७७ : आत्मनि भवं आत्मकम् । तत्र मित्र-ज्ञातयः परिग्रहाश्चैव बाहिरंग सोतं, मिच्छत्तं कसाया अण्णाणं अविरती य
एतं अत्तगं सोतं, श्रोत:- द्वारमित्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र १७८ : अन्तं गच्छतीत्यन्तगो दुष्परित्यज इत्यर्थः अन्तको वा विनाशकारीत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र १७८, १७६ : 'शोक' संतापं ........श्रोतो वा-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायात्मकम् । ५. वृत्ति, पत्र १७८ : आत्मनि वा गच्छतीत्यात्मग आन्तर इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १७९ ।
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