Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
४५. थोड़ा भोजन करे ( अप्पपिडासि )
३७८ श्लोक २६ :
'अल्प' शब्द के दो अर्थ हैं-'थोड़ा' और निषेध
यहां अल्प शब्द थोड़े के अर्थ में प्रयुक्त है । चूर्णिकार ने 'अप्पपिडासि' के दो अर्थ किए हैं—थोड़ा खाने वाला अथवा अपूर्ण खाने वाला। जो पुरुष कुक्कुट के अंडे के प्रमाण जितने बतीस कवल खाता है वह संपूर्ण आहार वाला कहा जाता है। जो इससे एक कवल या एक सिक्त भी कम खाता है वह 'अप्पपिडासि' है, अपूर्णभोजी है। जो उक्त प्रमाण वाले आठ कवल खाता है वह अल्पाहारी, जो बारह कवल खाता है वह अर्द्ध अवमोदरिक, जो सोलह कवल खाता है वह २ / ३ भोजन करने वाला, जो चउवीस कवल खाता है वह अवमोदरिक, जो तीस कवल खाता है वह संपूर्ण भोजन करने वाला होता है ।
४६. थोड़ा बोले (अप्पं मासेन्ज)
वो बोले अर्थात् अर्थदंडकवा न करे, परिमित और हितकारी वचन कहे। कहा है
योवाहारो थोवभणिओ अ जो होइ थोवनिद्दो य ।
थोवोवहिउवकरणो तस्स हु देवावि पणमंति ॥
--जो थोड़ा खाता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी नींद लेता है, और थोड़े उपधि और उपकरण रखता है, उसको देवता भी नमस्कार करते हैं ।
४७. शान्त (अभिणिग्वडे )
अभिनिर्वृत वह होता है जो शान्त है ।' जो लोभ आदि को जीत कर अनातुर हो जाता है वह अभिनिर्वृत कहलाता है ।" कषायों की शांति ही वास्तव में शांति है। कहा है
कषाया यस्य नोच्छिना, यस्य नात्मवशं मनः ।
इन्द्रियाणि न गुप्तानि प्रव्रज्या तस्य जीवनम् ॥
अध्ययन ८ : टिप्पण ४५-४८
----- जिसने कषायों का उच्छेद नहीं किया, जिसने मन पर अधिकार नहीं किया, जिसकी इन्द्रियां गुप्त नहीं हैं, उसकी प्रव्रज्या केवल आजीविका है । "
४८. अनासक्त (वीतगेही )
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चूर्णिकार के अनुसार तपस्या में निदान आदि न करने वाला विगतगृद्धि कहलाता है ।"
वृत्तिकार के अनुसार इन्द्रिय-विषयों के प्रति जिसकी आसक्ति मिट जाती है वह वीतगृद्धि कहलाता है । "
देखें - ६ । २५ में 'विगतगेही' का टिप्पण |
१. (क) चूर्णि, पृ० १७२, १७३ : अप्पं पिण्डमश्नातोति अपापडासी, असंपूण्णं वा एवं पाणं पि । अट्ठ कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमागे अप्पाहारे दुवाल अडोमोदरिया, सोलस मागप, उव्वीस जोमोदरिया, तो मापसे, बत्ती कवला संपुष्णाहारो, एतो एकेणानि ऊ
जाव एक्कयासेज एगसित्वेग वा ।
(ख) वृत्ति, पत्र १७५ ।
च
२. पूर्ण १० १०२ असे निदण्डकां न कुर्यात् कारणेऽपि नोपचं। ३. ओघनियुक्ति, गाया १२६५ ।
४. चूर्णि पृ० १७३ : अभिणिव्वुडो णाम निर्वृतीभूतः शीतीभूतो ।
५. वृत्ति, पत्र १७५ : अभिनिर्वृतो लोभादिजयान्निरातुरः ।
६. वृत्ति, पत्र १७५ ।
७. चूर्ण, पृ० १७३ : तवसा य विगतगेधी निदाणादिसु गेधिविपमुक्के य ।
८. वृत्ति पत्र १७५ विगता गुद्धिविषयेषु यस्य स गतवृद्धिः प्रशंसायोवरहिताः ।
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