Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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प्रध्ययन ८: टिप्पण २१-२६
कारण में कार्य का उपचार कर इन्हें ही बंधन माना गया है । जो इनमें प्रवृत्त नहीं होता, इनसे मुक्त है, वह 'छिन्न-बंधन' होता है। २१. सम्पूर्ण (अंतसो)
अंत का अर्थ है-- संपूर्ण, निरवशेष ।'
श्लोक ११: २२. मोक्ष की ओर ले जाने वाले (णयाउयं)
इसका संस्कृत रूप है-नर्यात्रिक और अर्थ है-मोक्ष की ओर ले जाने वाला । टीकाओं में इसका संस्कृत रूप 'नैयायिक' और अर्थ 'न्याय मार्ग' किया है। २३. सु-आख्यात (धर्म) को (सुयक्खातं)
सु-आख्यात, अच्छी तरह से कहा हुआ। णेयाउयं और सुयक्खातं- ये दोनों धर्म के विशेषण हैं। बौद्ध साहित्य में भी स्वाख्यात धर्म का प्रयोग मिलता है। स्थानांग में स्वास्यात धर्म की व्याख्या प्राप्त है।
देखें-१५१३ का टिप्पण। २४. चिंतन करता है (समीहते)
चूणिकार के अनुसार इसका अर्थ है-धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की सम्यक् ईहा करना।'
वृत्तिकार ने समीहते का अर्थ- मोक्ष के लिए चेष्टा करना किया है।" २५. दुःखमय आवासों को (दुहावासं)
विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख दुःखावास हैं । सकर्मवीर्य के कारण मनुष्य जन्म-मरण करता है और नरक आदि विभिन्न गतियों में जाता है । यह वास्तव में ही दुःखावास है।'
वृत्तिकार ने दुःख के कारणभूत बालवीर्य को दुःखावास माना है।' २६. (असुहत्तं तहा तहा)
इसका अर्थ है-जैसा-जैसा कर्म होता है, वैसा-वैसा अशुभ फलतो है।
बालवीर्य वाला मनुष्य जैसे-जैसे नरक आदि दुःखावासों में भटकता है, वैसे-वैसे अशुभ अध्यवसाय के कारण उसके अशुभ कर्म ही बढ़ता है। १. चणि, पृ० १६६ : ये पुनः प्रमादादयो हिंसादयः रागादयो वा तेषु कार्गवदुपचारादुच्यते-सव्वतो छिण्णबंधणे, न तेष वर्तत
इत्यर्थः। २. चूणि, पृ० १६८ : अन्तसो त्ति यावदन्तोऽस्य, निरवशेष मित्यर्थः । ३. ठाणं, ३३५०७। ४. चूणि, पृ० १६८ : सम्यग् ईहते समीहते ध्यानेन । किं ध्यायते ? धम्म सुक्कं च । ५. वृत्ति, पत्र १७१ : सम्यक् मोक्षाय ईहते चेष्टते ध्यानाध्ययनादावुद्यम विधत्ते । ६. चुणि, पृ० १६८। सकम्मकोरियवोसेण भूयो भूयो णरगादिसंसारे णाणाविधदुक्खवासे सारीरादीणि दुक्खाणि भुज्जो भुज्जो
पावति। ७. वृत्ति. पत्र १७१ : दुःखमावासयतीति दुःखावासं (बालवीर्ग) वर्तते । ८. चूणि, पृ० १६८: यथा यथा कर्म तथा तथाऽशभं फलति । ६. वृत्ति, पत्र १७६ : यथा यथा च बालवीर्यवान् नरकादिषु दुःखावासेषु पर्यटति तथा तथा चास्याशुभाध्यवसायित्वादशुभमेव
प्रवर्धते।
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