Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन ७: टिप्पण १५-१७ शीघ्र फल देने वाले कर्म उसी जन्म में फल देते हैं अथवा पर-जन्म नरक आदि में फल देते हैं । वे कर्म एक ही भव में तीव्र फल देते है अथवा अनेक भवों में तीन फल देते हैं। जिस प्रकार से अशुभ कर्म का आचरण किया है, उसी प्रकार से उसकी उदीरणा होती है अथवा दूसरे प्रकार से भी उसकी उदीरणा हो सकती है।
इसका आशय यह है कि कोई कर्म उसी भव में अपना विपाक देता है और कोई दूसरे भव में । जिस कर्म की स्थिति दीर्घकालिक होती है, उसका विपाक दूसरे भव में प्राप्त होता है। जिस प्रकार कर्म किया गया है, उसी प्रकार वह एक बार या अनेक वार फलित होता है। अथवा एक बार शिरच्छेद करने वाला एक बार या हजारों वार सिरच्छेद अथवा हाथ, पैर आदि के छेदन रूप फल पाता है। १५. आगे से आगे (परं परं)
चूर्णिकार ने 'परं परेण' शब्द मानकर उसका अर्थ-अनन्त भवों में किया है।' वृत्तिकार ने 'पर-परं' का अर्थ-प्रकृष्ट प्रकृष्ट किया है। १६. दुष्कृत का (दुण्णियाणि)
यह 'दुण्णीयाणि' शब्द है। किन्तु छन्द की अनुकूलता की दृष्टि से यहां 'ईकार' को ह्रस्व किया गया है।
इस श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि किए हुए कर्मों का भोग किए बिना उनका विनाश नहीं होता। जो मनुष्य जिस रूप में जिस प्रकार का कर्म करता है, उसका विपाक भी उसे उसी रूप में या दूसरे रूप में भोगना ही पड़ता है। कर्मों को भोगे बिना उनका विनाश नहीं होता । कहा है
मा होहि रे विसन्नो जीव तुमं विमणदुम्मणो दीवो। णहु चितिएण फिट्टइ तं दुक्खं जं पुरा रइगं ॥१॥ जइ पविससि पायालं अडवि व दरि गुहं समुई वा ।
पुवकयाउ न चुक्कसि अप्पाणं घायसे जइवि ॥२॥ 'रे जीव ! तू विषण्ण मत हो । तू दीन और दुर्मना मत हो। जो दुःख (कर्म) तूने पहले उत्पन्न किया है, वह चिन्ता करने मात्र से नहीं मिट सकेगा।'
'रे जीव ! तू चाहे पातल, जंगल, कन्दरा, गुफा या समुद्र में भी चला जा, अथवा तू अपने आपकी घात भी कर ले, किंतु पूर्वाजित कर्मों से तू बच नहीं पायेगा।
श्लोक ५:
१७. जो माता पिता को छोड़ (जे मायरं च पियरं च हिच्चा)
प्रश्न होता है कि यहां केवल माता-पिता का ही ग्रहण क्यों किया गया है ? चूर्णिकार का कथन है कि संतान के प्रति इनकी ममता अपूर्व होती है । ये करुणापर होते हैं । इनको छोड़ना कठिन होता है, अतः इनका यहां ग्रहण किया गया है। दूसरी बात है कि माता-पिता का संबंध सबसे पहला है, भाई, स्त्री, पुत्र आदि का संबंध बाद में होता है। किसी के भाई, स्त्री, पुत्र आदि नहीं भी होते, अतः प्रधानता केवल माता-पिता की ही है। माता-पिता आदि को छोड़ने का अर्थ है-उनके प्रति रहे हए ममत्व को छोड़ना।
१.णि, पृ० १५३ : परंपरेणेति परभवे, ततश्च परतरमवे, एवं जाव अर्णतेसु भवेसु । २. वृत्ति, पत्र १५५ : परं परं प्रकृष्टं प्रकृष्टम् । ३. वृत्ति, पत्र १५५ । ४. चूणि, पृ० १५४ : एते हि करुणानि कुर्वाणा दुस्त्यजा इत्येतद्ग्रहणम्, शेषा हि म्रातृ-भार्या-पुत्रादयः सम्बन्धात् पश्चात् भवन्ति न
भवन्ति वा इत्यतो माता-पितृग्रहणम् ।
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