Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो ।
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अध्ययन ७: टिप्पण६५-७० ६५. नेता के पीछे चलते हुए (गेयारमणुस्सरंता)
यहां ऐसे नेता का ग्रहण किया गया है जो जन्म से अंधा हो।' अनुसरण का अर्थ है-पीछे चलना। अंधे व्यक्ति अंधे नेता के पीछे चलते हुए पथ से भटक जाते हैं । वे उन्मार्ग में चलते हुए विषम पथ, गढे, कांटे, हिंस्र-पशु, अग्नि आदि के उपद्रवों को प्राप्त कर क्लेश को प्राप्त होते हैं । वे अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते । यह इस पद का तात्पर्यार्थ है।
श्लोक १८: ६६. हवन से मोक्ष होना बतलाते हैं (हतेण जे सिद्धि मुदाहरंति)
'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः'--स्वर्ग की कामना करने वाले पुरुष को अग्निहोत्र करना चाहिए--- इस भावना से कुछ व्यक्ति अग्नि से सिद्धि की बात बताते हैं।'
'उदाहरंति' का सामान्य अर्थ है-उदाहरण प्रस्तुत करना। यहां इसका अर्थ-'कहना' मात्र है।'
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-प्रतिपादन करना-किया है। ६७. कुकर्मी (वन जलाने वाले आदि) (कुकम्मिणं)
कोयला बनाने वाले वन-दाहक, कजावा पकाने वाले कुम्हार, लोहे की वस्तुएं बनाने वाले लोहकार तथा जाल बुनने वालेआदि के व्यवसाय को कुकर्म कहा है । ये व्यवसाय करने वाले कुकर्मी कहलाते हैं।'
श्लोक १६ : ६८. दृष्टि की परीक्षा किए बिना (अपरिच्छ दिदि)
दृष्टि का अर्थ है-दर्शन । वह दो प्रकार का होता है - मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन । 'अपरिच्छ दिट्ठि' का अर्थ है-दृष्टि की परीक्षा किए बिना।
वृत्तिकार ने 'दिट्ठि' के स्थान पर 'दिट्ट' (दृष्ट) पाठ माना है। ६९. विनाश को (धातं)
इसका सामान्य अर्थ है-विनाश । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उपलक्षण से इसका अर्थ-संसार किया है। जहां प्राणी नाना प्रकार से मारे जाते हैं, दुःख-विशेष से पीडित होते हैं, वह है संसार । इस अपेक्षा से संसार को 'घात' माना गया है।' ७०. विद्या को (विज्जं)
चूणि और वृत्ति में 'विज्ज' पद का अर्थ विद्वान् किया गया है। इसका वैकल्पिक अर्थ विद्या भी है।' १. (क) चूणि, पृ० १५८ : जात्यन्धं णेतारं ।
(ख) वृत्ति, पत्र १६० : अपरं जात्यन्धमेव नेतारम् । २. चूणि, पृ० १५८ : यथा जात्यन्धो जात्यन्धं णेतारमणुस्सरंतो,... ''उन्मार्ग प्राप्य विषम-प्रपाता-हि-कण्टक-व्यालाऽग्निउपद्रवानासा
दयति, क्लेशमृच्छति, न चेष्टां भूमिमवाप्नोति । ३. वृत्ति, पत्र १६०। ४. चूणि, पृ० १५८ : उदाहरंति नाम भासंति । ५. वृत्ति, पत्र १६० : उदाहरन्ति प्रतिपादयन्ति । ६. (क) चूणि, पृ० १५८ : कुकम्मी णाम घटकाराः कूटकारा वणदाहा वल्लरवाहकाः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १६० : कुकर्मिणाम् अङ्गारदाहककुम्म कारायस्करादीनाम् । ७. (क) चूणि पृ० १५६ : तस्तैर्दुःख विशेषेर्धातयतीति घातः संसारः।
(ख) वृत्ति, पत्र १६१: धात्यन्ते-व्यापाद्यन्ते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् प्राणिनः स घातः-संसारः। ८. (क) चूणि, पृ० १५६ : विज्जं णाम विद्वान् .. "विज्जं विज्जा णाम णाणं ।
(ख) वृत्ति, पत्र १६१: विज्जं विद्वान् ......."विज्ज विद्यां ज्ञानम् ।
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