Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो ७. पुढवी विजीवा आऊ वि जीवा पाणा य संपातिम संपयंति । संसेदया कट्टसमस्सिता य एते दहे अगणि समारभंते ॥
३२४ प्र०७ : कुशोलपरिभाषित : श्लोक ७-१२ पृथिव्यपि जीवाः आपोऽपि जीवाः, ७. पृथ्वी भी जीव है। पानी भी जीव प्राणाश्च सम्पातिमाः संपतन्ति । है। उड़ने वाले जीव आकर गिरते संस्वेदजाः काष्ठसमाश्रिताश्च, हैं । संस्वेदज" भी जीव हैं । इंधन में एतान् दहेत् अग्निं समारभमाणः ।। भी जीव होते हैं ।“ अग्नि का समारंभ
करने वाला इन सब जीवों को जलाता
८.हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि
आहार-देहाइं पुढो सियाई। जे छिदई आतसुहं पडुच्च पागभि-पण्णो बहुणं तिवाती॥
हरितानि भूतानि विलम्बकानि, आहारदेहानि पृथक् श्रितानि । यश्च्छिनत्ति आत्मसुखं प्रतीत्य, प्रागल्भिप्रज्ञः बहुनामतिपाती।
६.जाइंच ड्ढि च विणासयंते बीयाइ अस्संजय आयदंडे । अहाहु से लोए अणज्जधम्मे बीयाइ जे हिसइ आयसाते ॥
जाति च वृद्धि च विनाशयन्, बीजानि असंयतः आत्मदण्डः । अथाहुः स लोके अनार्यधर्मा, बीजानि यो हिनस्ति आत्मसातः॥
१०. गब्भाइ मिज्जंति बुयाबुयाणा
णरा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य चयंति ते आउखए पलीणा ॥
गर्भादौ म्रियन्ते ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तः, नराः परे पञ्चशिखाः कुमाराः । युवानकाः मध्यमाः स्थविरकाश्च, च्यवन्ते ते आयुःक्षये प्रलीनाः ।।
८. वनस्पति जीव हैं। वे जन्म से मृत्यु
पर्यन्त नाना अवस्थाओं को धारण करते हैं। वे आहार से उपचित होते हैं। वे (वनस्पति-जीव) मूल, स्कंध आदि में पृथक्-पृथक् होते हैं ।" जो अपने सुख के लिए उनका छेदन करता है, वह ढीठ प्रज्ञावाला" बहुत
जीवों का" वध करता है। ६. जो वनस्पति के जीवों की उत्पत्ति,
वृद्धि और बीजों का विनाश करता है, वह असंयमी मनुष्य अपने आपको दंडित करता है। जो अपने सुख के लिए बीजों का विनाश करता है, उसे
अनार्य-धर्मा" कहा गया है। १०. (वनस्पति की हिंसा करने वाले) कुछ गर्भ में" ही मर जाते हैं। कुछ बोलने
और न बोलने की स्थिति में पंचशिख" कुमार होकर, कुछ युवा, अधेड' और बूढ़े होकर मर जाते हैं। वे आयु के क्षीण होने पर किसी भी अवस्था में जीवन से च्युत होकर प्रलीन हो
जाते हैं । ११. हे प्राणी ! तू धर्म को समझ।" यहां
मनुष्यों में नाना प्रकार के भयों को देखकर बचपन (अज्ञान) को छोड़ । यह जगत् एकान्त दुःखमय और (मूर्छा के) ज्वर से पीडित" है। वह अपने ही कर्मों से विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होते हुए भी
दुःख पाता है। १२. इस जगत् में कुछ मूढ मनुष्य नमक"
न खाने से मोक्ष बतलाते हैं, कुछ मनुष्य" सजीव जल से स्नान करने "और कुछ हवन से मोक्ष बतलाते
११.बुज्झाहि जंतू ! इह माणवेसु बटुं भयं बालिएणं अलं भे। एगंतदुक्खे जरिए हु लोए सकम्मुणा विपरियासुवेति ॥
बुध्यस्व जन्तो! इह मानवेषु, दृष्ट्वा भयं बाल्येन अलं भवतः । एकान्तदुःखे ज्वरिते खलु लोके, स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥
१२. इहेगे मूढा पववंति मोक्खं
आहारसंपज्जणवज्जणेणं एगे य सीतोदगसेवणेणं हुतेण एगे पवदंति मोक्खं ॥
इहैके मूढाः प्रवदन्ति मोक्षं. आहारसंप्रज्वलनवर्जनेन एके च शीतोदकसेवनेन, हुतेन एके प्रवदन्ति मोक्षम् ।।
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