Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडा १
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अध्ययन ६ : टिप्पण 88-१०२
सव्ववारिवारितो-He is wholly restrained in regard to water. सव्ववारियुतो-He is bent on warding off all evil. सव्ववारिधुतो-He has shaken off all evil. सव्ववारिफुटो-He is permeated with the (warding off) all evil.
मज्झिमनिकाय का यह प्रसंग भ्रान्तिपूर्ण है। भगवान् पार्श्व के शासन में चतुर्याम धर्म प्रचलित था। भगवान् महावीर ने पांच महाव्रत, संवर या शिक्षा का निरूपण किया था।' जो पांच संवरों से संवृत होता है वह 'सर्ववारी' कहलाता है। 'पंचसंवर-संवृत' का उल्लेख प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन में मिलता है।' यहां 'वारी' शब्द का प्रयोग संवर के अर्थ में किया गया है। 'सर्ववारी' अर्थात् प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रीभोजन-इन सबका संवर करने वाला।'
इलोक २९ ६६. समाधान देने वाले (समाहियं)
- इसका अर्थ है-समाहित करने वाला, समाधान देने वाला । चूणिकार और दृत्तिकार ने इसका अर्थ-सम्यग् आख्यात, सम्यक् रूप से प्ररूपित किया है। १००. अर्थ और पद से विशुद्ध (अट्टपदोवसुद्ध)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-५
(१) जिसके पद अर्थवान होते हैं वह अर्थपद कहलाता है। उससे शुद्ध धर्म ।
(२) अर्थों और पदों से उपेत होने के कारण शुद्ध धर्म । वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ इस प्रकार हैं
(१) सयुक्तिक या सहेतुक ।
(२) अभिधेय और वाचक के द्वारा उपशुद्ध । १०१. श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर (सद्दहंतााय)
इसमें दो शब्द हैं-सद्दहंता और आदाय । प्राकृत व्याकरण के अनुसार इन दोनों पदों में संधि हुई है और वर्ण (दा) का लोप हुआ है।
इसका अर्थ है-श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके ।' १ उत्तरायणाणि, २३।२३ : चाउपजामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ।
देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी॥ २. सूयगडो, ११११८८। ३. चूणि, पृ० १५० : वारितवान् शिष्यान् हिंसा-ऽनृत-स्तेय-परिग्रहेभ्य इति, मैथुन-रात्रिभक्ते तु पूर्वोक्ते । ४. (क) चूणि, पृ० १५० : सम्यग् आहितः समाहितः, सम्यगाण्यात इत्यर्थः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५२ : सम्यगाख्यातम् । ५. चूणि, पृ० १५० : अत्यवंति पदानि, अथवाऽर्थश्च पदैश्च उपेत्य शुद्धम् । ६. वृत्ति, पत्र १५२ : अर्थपदानि-युक्तयो हेतवो वा तैरुपशुद्धम् अवदातं सद्यक्तिकं सद्धेतुकं वा यदि वा अर्थ:--अभिघेणैः पदैश्च
___ वाचकैः शब्दैः उप-समीप्येन शुद्ध-निर्दोषम् । ७. चूणि, पृ० १५० : सद्दहताऽऽय........... श्रद्धानपूर्वकमावाय ।
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