Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन ६: टिप्पण ८३-८७ ८३. तपस्या में (तवेसु)
जो तपस्या करता है उसका शरीर भी सुन्दर और मनमोहक हो जाता है। सभी प्रकार की तपस्याओं में ब्रह्मचर्य उत्तम है। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल वस्ति-नियमन ही नहीं है, ब्रह्म-आत्मा में रमण करना ही इसका प्रमुख अर्थ है। ८४. श्रमण ज्ञातपुत्र लोक में प्रधान हैं (लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते)
श्रमण ज्ञातपुत्र लोक में रूप संपदा से, अतिशायिनी शक्ति से, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से तथा अनन्त चारित्र से उत्तम हैं। ८५. (ठितीण ........''लवसत्तमा)
स्थिति का अर्थ है-आयुष्य की काल-मर्यादा ।
अनुत्तरोपपातिक देवों के आयुष्य की काल-मर्यादा सबसे अधिक होती है। उन्हें लवसप्तम इसलिए कहा जाता है कि यदि उनकी आयुष्य सात लव अधिक हो पाती तो वे उसी जीवन में केवली होकर मुक्त हो जाते।'
जैन परम्परा में एक लव ३७३१ सेकेण्ड का माना गया है।' ८६. सुधर्मा सभा (सुहम्मा)
स्थानांग सूत्र में देवताओं के पांच प्रकार की सभाएं मानी गई हैं१. सुधर्मा सभा।
४. अलंकारिक सभा। २. उपपात सभा ।
५. व्यवसाय सभा। ३. अभिषेक सभा।
चुणिकार का अभिमत है कि इन पांचों सभाओं में सुधर्मा सभा नित्य काम में आती है। वहां माणवक, इन्द्रध्वज, आयुधशाला, कोशागार तथा चोपालग होते हैं । अन्य सभाओं में वे नहीं होते। अतः वह सब में श्रेष्ठ है।'
वृत्तिकार का अभिमत है कि सुधर्मा सभा अनेक क्रीड़ास्थानों से युक्त है, अत: वह श्रेष्ठ है।'
बौद्ध परंपरा के अनुसार मेरु पर्वत के पूर्वोत्तर दिशा में सुधर्मा नाम की देवसभा है जहां देव प्राणियों के कृत्य-अकृत्य का संप्रधारण करते हैं । माना जाता है कि पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा-अमावस्या को देवसभा होती है।' ८७. सब धर्मों में निर्वाण श्रेष्ठ है (णिव्वाणसेटा जह सव्वधम्मा)
चणिकार ने श्रेष्ठ का अर्थ-फल या प्रयोजन और वृत्तिकार ने प्रधान किया है।
१. चूणि, पृ० १५० : येन तपोनिष्टप्तदेहस्यापि मोहनीयं भवति, तेन सर्वतपसां उत्तमं ब्रह्मचर्यम । २. वत्ति, पत्र १५० : सर्वलोकोत्तमरूपसम्पदा-सर्वाऽतिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाभ्यां शीलेन च 'ज्ञातपुत्रो' भगवान श्रमणः
प्रधान इति । ३. चूणि, पृ० १५० : जे सव्वुक्कोसियाए ठितीए बटति अणुत्तरोववागिता ते लवसत्तमा इत्यपविश्यन्ते, जति णं तेसि देवाणं एवतियं
कालं आउए पहुप्पंते तो केवलं पाविऊण सिझता। ४. अणुयोगद्दाराई, सूत्र ४१७; जेनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २ पृष्ठ २१६ । ५. ठाणं, श२३५ चमरचंचाए रायहाणीए पंच सभा पण्णत्ता, तं जहा-सभासुधम्मा, उववातसमा, अभिसेयसभा, अलंकारियसभा,
ववसायसमा। ६. चणि, पृ० १४६ : पंचण्ह पि समाणं सभा सुधम्मा विसिट्ठा, सा हि नित्यकालमेवोपभुज्यन्ते, तत्थ माणवग-महिंदज्झय-पहरण
कोसचोपाला, ण तधा इतरासु नित्यकालोपभोगः । ७. वृत्ति, पत्र १५० : समानां च पर्षदां च मध्ये यथा सौधर्माधिपपर्षच्छष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानरुपेतत्वात् । ८. अभिधर्म कोश पृ० ३८४ ।
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