Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन ५: टिप्पण ६२-६७
श्लोक २८ ६२. यथार्थरूप में (जहातहेणं)
सर्वज्ञ यथार्थ द्रष्टा होता है । वह जैसा है वैसा ही देखता है और वैसा ही उसका प्रतिपादन करता है। उसके कथन में न उपचार होता है और न अतिशयोक्ति।' ६३. अज्ञानी प्राणी (बाल)
वृत्तिकार ने यहां इस शब्द के चार अर्थ किए हैं - १. परमार्थ को न जानने वाला। २. विषय सुख का आकांक्षी। ३. वर्तमान को ही देखने वाला। ५. कर्म के विपाक की उपेक्षा न करने वाला।
श्लोक २६: ६४. पीठ की (पिट्ठउ)
यहां 'ऊकार' में हृस्वत्व छंदोदृष्टि से किया गया है। ६५. सुदृढ़ (थिरं)
चूर्णिकार ने इस शब्द का अर्थ- 'चमड़ी को बीच में बिना तोड़े'- किया है और वृत्तिकार ने इसका अर्थ-बलवत्सुदृढ़ किया है।
श्लोक ३० ६६. उसके मुंह को........... जलाते (थूलं वियासं मुहे आडहंति)
नरकपाल नरयिकों के मुंह फाड़कर चार अंगुल से बड़ी लोहे की कीलों से उसे कील देते हैं ताकि वे मुंह को बंद न कर सकें, तथा न चिल्ला सकें। फिर भी वे चिल्लाकर कहते हैं—'अरे ! हमारा मुंह जलाया जा रहा है।"
वृत्तिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। नरकपाल नैरयिकों के मुंह को फाड़कर उसमें लोहे के तपे हुए बड़े गोले डालकर चारों ओर से जलाते हैं। ६७. उस अज्ञानी को........... कोडे मारते हैं (रहंसि जुत्तं .......... 'तुदेण पढ़े)
इन दो चरणों के अर्थ के विषय में चूणिकार और वृत्तिकार एकमत नहीं हैं । चूर्णिकार के अनुसार इनका अर्थ है
वे नरकपाल बड़े-बड़े रथों की बिकुर्वणा करते हैं और उन नैरयिकों को उन रथों में जोड़कर चलाते हैं। जब वे नैरयिक १. (ख) वृत्ति, पा १३५ : याथातथ्येन यथा व्यवस्थितं तथैव कथयामि, नात्रोपचारोऽर्थवादो वा विद्यत इत्यर्थः।
(ख) चूणि, पृ० १३४ : यथेति येन सर्वज्ञो हि यथवावस्थितो भावः तथैवैन पश्यति भाषते च । २. वृत्ति, पत्र १३५ : बाला: परमार्थमजानाना विषयसुखलिप्सवः साम्प्रतक्षिणः कर्मविपाकमनपेक्षमाणा । ३. चूर्णि, पृ० १३४ : स्थिरो नाम अवोडयन्तः । ४. वत्ति, पत्र १३५: स्थिरं बलवत ।। ५. चूणि, पृ० १३५ : लोहकोलएणं चतुरंगुलप्रमाणाधिकेणं थूलं मुहं विगसावेतूणं । थूलमिति महत्, मा संवहिति वा रडिहिंति व त्ति,
आरसतोऽपि न तस्य परित्राणमस्ति, तथाप्यातुरत्वादारसंति । आउहंति त्ति वु (? ड) झिंति । ६. वृत्ति, पत्र १३५ : मुखे विकाशं कृत्वा स्थूलं बृहत्तप्तायोगोलादिकं प्रक्षिपन्त आ-समन्ताद्दहन्ति ।
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