Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
प्रध्ययन ५: टिप्पण २-१७
१. शोत २. उष्ण ३. क्षधा ४. पिपासा ५. खुजलाहट
६. परतंत्रता ७. भय ८. शोक
६. जरा १०. व्याधि
श्लोक ३८ :
६२. वधस्थान (णिहं)
जहां बहुत प्राणी मारे जाते हैं उस स्थान को 'निह' कहा गया है।' ६३. बिना काठ की आग जलती है (जलंतो अगणी अकट्ठो)
वहां बिना काठ की अग्नि जलती है। वह अग्नि वैक्रिय से उत्पन्न होती है। वे नीचे पाताल में होती हैं, अनवस्थित होती हैं । वे बिना संघर्षण से उत्पन्न होने वाली हैं।
देखें-५७, ३५ का टिप्पण । ६४. बहुत कर कर्म करने वाले नैरयिक (बहकरकम्मा)
क्रूर का अर्थ है—-दयाहीन । बैसा हिंसा आदि का कार्य जिसको करने के पश्चात् भी कर्ता पश्चात्ताप नहीं करता, वह कर्म क्रूर कहलाता है।' ६५. जोर-जोर से चिल्लाते हुए (अरहस्सरा)
_ 'रह' का अर्थ है एकान्त या शून्य । जो शून्य नहीं है, वह 'अरह' स्वर होता है । भावार्थ में इसका अर्थ होगा-जोर-जोर से चिल्लाना।
श्लोक ३६ :
६६. बड़ी (महंतीउ)
छन्द की दृष्टि से यहां ओकार के स्थान पर ह्रस्व उकार का प्रयोग है ।
इसका अर्थ है-बड़ी । नरकपाल नैरयिकों को जलाने के लिए बड़ी-बड़ी चिताएं बनाते हैं। वे नैरयिकों के शरीर प्रमाण से बहत विशाल होती हैं। उनमें अनेक नैरयिक एक साथ समा जाते हैं।
श्लोक ४० :
६७. पीटते हैं (समारभंति)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ-पीटना किया है। १.(क) वत्ति, पत्र १३७ : निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यस्मिन् तन्निहम-आघातस्थानम् ।
(ख) चूणि, पृ० १३७ : अधिकं तस्यां हन्यत इति निहं ज्वरोदुपानवस्थितम् । २. चूणि, पृ० १३७। ३. चूणि, पृ० १३७ : कूरं णाम निरनुक्रोशं हिंसादि कर्म, यत् कृत्वा कृते च नानुतप्यन्ते । ४. वृत्ति, पत्र १३७ : अरहस्वरा बृहदाक्रन्दशब्दा । ५. चूणि, पृ० १३७ : महंतोओ नाम नारकशरीरप्रमाणाधिकमात्रा: यत्र चानेके नारका मायन्ते । ६. चूणि, पृ० १३७ : समारभंति ति पिटेति ।
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