Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
२८८
वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ है- भगवान् का ज्ञान कैसा था ? भगवान् का दर्शन कैसा था ? *
१०. हे भिक्षु ! (भिक्खु )
यह सुधर्मा के लिए प्रयुक्त है ।"
११. यथार्थरूप में जो तुम जानते हो ( जाणासि
जहाल हेणं)
प्रश्नकर्त्ताओं ने आर्य सुधर्मा से कहा- आपने ज्ञातपुत्र को देखा है । प्रत्यक्ष में आपने उनसे बातचीत की है। इसलिए उनमें गुण थे आप उन्हें यथार्थ रूप से जानते हैं । '
जो
१२. अवधारित किया है (णिसंतं)
इसका अर्थ है- सुनकर निश्चय करना, अवधारित करना । कुछ सुना जाता है पर उसका अवधारण नहीं होता । जिसका अवधारण नहीं होता, उसकी स्मृति नहीं होती, इसलिए प्रश्नकर्त्ताओं ने कहा- आपने जो सुना है, जो देखा है और जिसका अवधारण किया है, वह आप हमें बताएं । *
श्लोक ३ :
१३. आत्मज्ञ ( खेयण्ण ए)
भगवान् महावीर के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न होने पर सुधर्मा स्वामी ने क्षेपज्ञ का अर्थ क्षेत्र को जानने वाला किया है। क्षेत्र के अर्थ की कोई चर्चा उन्होंने
क्षेत्र
मे दो संस्कृत रूप तथा इसके तीन अर्थ किए है
अध्ययन ६ : टिप्पण १०-१३
१. खेदज्ञ - संसार के समस्त प्राणियों के कर्मजन्य दुःखों के ज्ञाता तथा उनको नष्ट करने का उपाय बताने वाले ।
२. क्षेत्रज्ञ - क्षेत्र का अर्थ है आत्मा । उसको जानने वाला क्षेत्रज्ञ - आत्मज्ञ ।
३. क्षेत्रज्ञ - क्षेत्र का अर्थ है आकाश । लोक और अलोक को जानने वाला - क्षेत्रज्ञ ।
आयारो १।६७ आदि में भी यह शब्द प्रयुक्त है । वहां भी इसका अर्थ आत्मज्ञ किया गया है। भगवती ( शब्द का अर्थ आत्मा प्राप्त होता है ।
) में क्षेत्र
भगवद् गीता में शरीर को 'क्षेत्र' और उसे जानने वाले को 'क्षेत्रज्ञ' कहा है । क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही (शरीर और आत्मा का ज्ञान ही ) योगिराज कृष्ण के मत में वास्तविक ज्ञान है।"
कहा- भगवान् महावीर क्षेत्रज्ञ थे। चूर्णिकार ने नहीं की है। वृत्तिकार ने इसके सेवन और
१. वृत्ति, पत्र १४३ : कथं केन प्रकारेण भगवान् ज्ञानमवाप्तवान् ? किम्भूतं वा तस्य भगवतो ज्ञानं - विशेषावबोधकं ? किम्भूतं च से तस्य 'दर्शन' सामान्यापरिच्छेदकम् ?
२. वृत्ति, पत्र १४३ : भिक्षो ! सुधर्मस्वामिन् ।
३.
पृष्ठ १४२ घातयेणं हे भिक्षो! त्वया हासो युष्टश्वाऽऽभावितश्च इत्यतो यथा तद्गुणा यभूवुः तथा त्वं जानीषे ।
४. चूर्ण, पृष्ठ १४२ : णिसंतं यथा निशान्तं च, निशान्तमित्यवधारितम् । किञ्चित् श्रूयते न चोपधार्यते इत्यतः अधासुतं ब्रूहि जधा
णिसंत ।
५. चूर्णि, पृ० १४३ । क्षेत्रं जानातीति क्षेत्रज्ञः ।
६. वृत्ति, पत्र १४३
७. भगवद् गीता १३।१,२ : इदं शरीरं कौन्तेय ! क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
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संसारान्तर्वतिनां प्राणिनां कर्मविपाकजं दुःखं जानातीति खेदशो दुःखापनोदनसमर्योपदेशदानात्, यदि वा 'क्षेत्रों' वयावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानादात्मज्ञ इति अथवा क्षेत्रम् - आकाशं तज्जानातीति क्षेत्रज्ञो लोकालोकस्वरूपपरिज्ञातेत्यर्थः ।
एतद् यो वेत्ति तं प्राह क्षेत्र इति तद्वदः ॥
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि, सर्वक्षेत्रेषु भारत !, क्षेत्रक्षेत्रज्ञो मत तज्ञानं मतं मम ॥
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