Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
५४. शील (सीलेण)
चूर्णिकार ने शीत के दो प्रकार किए है-तप और संयम ।'
३०३
श्लोक १७:
६०. सारे कर्मों का (असेस कम्मंस )
पूर्व श्लोक में भगवान् महावीर के शुक्लध्यान की चर्चा है । केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भगवान् शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों में रहते थे । जब तक वे सयोगी रहे तब तक शुक्लध्यान के तीसरे भेद - सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती में तथा अयोगी होने के पश्चाद उसके चौथे और अंतिम भेदसमुच्छिन्न किया अनिवृत्ति में स्थित हो गए। तद् पश्चात् अष कम अर्थात् अवशिष्ट वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य कर्मों का एक साथ क्षय कर मुक्त हो गए । '
यही वर्णन उत्तराध्ययन के २६।७२ में है। वहां 'कम्मंस" शब्द का प्रयोग है ।
प्रस्तुत प्रसंग में भी ' असेस कम्मंस' यही पाठ होना चाहिए ।
चूर्णिकार ने 'स' को भिन्न मानकर इसका अर्थ- स इति भगवान् किया है । *
वृत्तिकार ने 'स' के स्थान पर 'च' माना है । "
यहां 'स' के भिन्न प्रयोग का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता ।
६२. सादि अनन्त (साइमणंत )
६१. अनुतर लोक के अग्रभाग में स्थित (अणुतरग्ग)
यह सिद्धि गति का विशेषण है । सिद्धि गति सब सुखों में प्रधान, सब स्थानों में अनुत्तर और लोक के अग्रभाग में है, इसलिए इसे 'अनुत्तराम्र' कहा गया है। उत्तराध्ययन में एक प्रश्नोत्तर उपलब्ध है । प्रश्न पूछा गया - सिद्ध कहां प्रतिहत होते हैं ? कहां प्रतिष्ठित हैं ? शरीर को छोड़कर कहां जाकर सिद्ध होते हैं ? उत्तर में कहा गया- सिद्ध अलोक में प्रतिहत होते हैं, लोकाग्र में प्रतिष्ठित होते हैं, और मनुष्य लोक में शरीर को छोड़ लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं । "
अध्ययन ६ टिप्पण ५४-६३
यह विभक्तिरहित प्रयोग है। यहां 'साइमनंतं' द्वितीया विभक्ति होनी चाहिए।
सिद्धिगति सादि और अनन्त होती है । कर्मयुक्त आत्मा वहां जाती है, अतः वह गति आदि सहित (सादि ) है । वहां जाने के पश्चात् कोई भी आत्मा लौट कर नहीं आती, पुनः जन्म ग्रहण नहीं करती, अतः वह अनन्त है ।
श्लोक १५ :
६२. शाल्मली ( सामली)
जैन आगमों में शाल्मली वृक्ष का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त है । क्वचित् इस शब्द के साथ 'कूट' शब्द भी मिलता
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१. चूर्ण, पृ० १४७ : शीलं दुविधं तवो संजमो य ।
२. (क) वृत्ति पत्र १४८ उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्मं काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाता तथा नियोगश्च शुध्यानमेदं स्युपरतनिवृत्ताध्यापति (ख) उत्तरज्झयणाणि, २६।७२ ।
३. उत्तरज्भवणाणि २६।७२ कम्मसे जुगवं खवेइ ।
.............च ।
४. चूर्णि पृ० १४७ : असेसं णिरवसेसं कम्मं । स इति भगवान् । ५. वृत्ति पत्र १४८ : अशेषं कर्म - ज्ञानावरणादिकं - ६. उत्तर हा सिद्धा ?, कह सिद्धा पट्टिया ? | कहि बोन्दि चइत्ताणं ?, कत्थ गन्तृण सिम्झई ? ॥ अलोए पहिया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्टिया ।
२६०५५५६
इहं बोन्दि चहत्ताणं तस्य गन्तुण सिन्भाई ॥
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