Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो
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अध्ययन ६ : टिप्पण १९-२१ १६. नित्य और अनित्य- इन दोनों दष्टियों से भलीभांति देखकर प्रज्ञ ज्ञातपुत्र ने (से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पण्णे)
भगवान् महावीर ने देखा पदार्थ नित्य भी हैं और अनित्य भी हैं। द्रव्य या अस्तित्व की दृष्टि से वे नित्य हैं और भाव या अवस्थान्तर की दृष्टि से वे अनित्य हैं।' इस नित्यानित्यवादी दर्शन के आधार पर उन्होंने धर्म का प्रवर्तन किया। धर्म को नहीं देखने वाला उसका प्रवर्तन नहीं कर सकता । तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि बुद्धि द्वारा धर्म का प्रवर्तन नहीं हो सकता। वह प्रज्ञा द्वारा ही होता है। प्रज्ञा वस्तु-तत्त्व का साक्षात् करने वाली चेतना की अवस्था है। चूणिकार ने 'समिक्ल पण्णे' का अर्थ-'प्रज्ञा द्वारा भलीभांति देखकर, किया है। गणधर गौतम ने मुनिप्रवर केशी से कहा-धर्म को प्रज्ञा द्वारा देखा जाता है।
धवलाकार ने प्रश्न उपस्थित किया-प्रज्ञा और ज्ञान में क्या भेद है ? इसके उत्तर में उन्होंने बताया---प्रज्ञा ज्ञान को उत्पन्न करने वाली अध्ययन-निरपेक्ष चैतन्य शक्ति का विकास है। ज्ञान उसका कार्य है। नंदी सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के दो प्रकार बतलाए हैं-श्र तनिश्रित (अध्ययन-सापेक्ष) और अश्रु तनिश्रित (अध्ययन-निरपेक्ष)। यह अश्रु तनिश्रित ज्ञान ही प्रज्ञा है। सूत्रकार ने इसे बुद्धि भी कहा है। इसके चार प्रकार बतलाए गए हैं - औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कामिकी और पारिणामिकी।
त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनुसार जिसे अश्रु तनिश्रित ज्ञान की शक्ति उपलब्ध होती है उसे 'प्रज्ञाश्रमण-ऋद्धि' कहा जाता है। प्रज्ञाश्रमण अध्ययन किए बिना ही समस्त थ त का अधिकृत ज्ञाता और प्रवक्ता होता है। २०. द्वीप (दीवे)
इसके दो अर्थ होते हैं-द्वीप और दीप । चूर्णिकार ने द्वीप को आश्वासद्वीप और दीप को प्रकाशदीप बतलाया है । जलपोत के टूट जाने पर यात्रियों के लिए द्वीप आश्वासन का हेतु बनता है। अन्धकार में भटकते हुए लोगों के लिए दीप प्रकाश करता है । धर्म भी आश्वासद्वीप और प्रकाशदीप का कार्य करता है।'
वृत्ति में 'दीव' को भगवान् का विशेषण माना है। किन्तु यह वस्तुतः धर्म का विशेषण होना चाहिए । केशी-गौतम संवाद में भी धर्म को द्वीप बतलाया गया है।
आवश्यक में तीर्थंकर को भी द्वीप कहा गया है। इसलिए 'द्वीप' महावीर और धर्म-दोनों का विशेषण हो सकता है। किन्तु 'दीवे व धम्म' इस पाठ में 'इव' का प्रयोग है, इसलिए यहां यह धर्म का विशेषण होना चाहिए । २१. सम्यक् (समियं)
सम्यक् के दो अर्थ हैं-रागद्वेषरहित या समभाव से । भगवान् का उपदेश सम्यक होता है ।" वे पूजा, सत्कार या गौरव के १. चूणि, पृ० १४३ : भावा अपि हि केनचित् प्रकारेण नित्याः केनचिदनित्याः । कथम् ? इति चेत्, द्रव्यतो नित्या भावतोऽनित्याः,
द्रव्यं (? उभयं) प्रति नित्यानित्याः । एवमन्यान्यपि द्रव्याणि यथा नित्यान्यनित्यानि च । २. चूणि, पृ० १४३ : समिक्ख पण्णे-सम्यग् ईक्ष्य प्रज्ञया । ३. उत्तरज्झयणाणि, २३१२५ : पन्ना समिक्खए धम्म । ४. धवला, १४, १,१८ : पण्णाए णाणस्स य को विसेसो? णाणहेदुजीवसत्ती गुरुवएसनिरवेक्खा पण्णा नाम, तक्कारियं णाणं । ५. नंदी, सूत्र ३७, ३८ : से कि तं आभिणिबोहियणाणं ? आभिणिबोहियनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-सुयनिस्सियं च असुयनिस्सियं
से कि तं असुयनिस्सियं ? असुयनिस्सियं चउन्विहं पण्णत्तं, तंजहा-उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया । ६. तिलोयपण्णत्ती, ४११०१७-१०२१।। ७. चूणि, पृ० १४३ : दीवो दुविधो-आसासवीवो पगासदीवो य, उभयथाऽपि जगतः, आसासदीवो ताणं सरणं गती, प्रकाशकरो आदित्यः
सव्वत्थ सम पगासयति चंडालादिसु वि । ८ वृत्ति, पत्र १४४ : : तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दोपवत् दीपः यदि वा–संसारार्णवपतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वास
हेतुत्वात् द्वीप इव द्वीपः । है उत्तरायणाणि २३१६८ : धम्मो दीवो पइट्ठा य । १०. आवश्यक सूत्र, सक्कत्थुई : वीवो ताणं............. ११. वृत्ति, पत्र १४४ : सम्यक् इतं-गतं सदनुष्ठानतया रागद्वेषरहितत्वेन समतया वा।
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