Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
५१. भुजह पाएसु गिलाणाभिहडं ति य । तं च बीओदगं भोच्चा तमुद्देस्ताद जंक ॥१२॥
५२. लिता तिथ्याभितावेणं उज्झिया असमाहिया । जाइकंडूइयं सेयं अरुयस्सावरज्भई ||१३|
५३. तत्तेण अणुसिद्धा ते अपडिपेण जाणया । ण एस णियए मग्गे असमिक्खा वई किई ।१४। ५४. एरिसा जावई एसा अग्गे वेणु व्य करिसिया । गिहिणं अभिहर्ड सेयं जि प उ भिक्खुणं ॥ १६ ॥
५५. धम्मपण्णवणा जा सा सारम्माण विसोहिया ण उ एयाहि दिट्ठीहिं पुव्वमासि पगप्पियं ॥१७॥
५६. साहि
अणुजुतीहि
अचयंता जवित्तए । तो वायं णिराकिच्या ते भुज्जो वि पगमिया | १८
५७. रागदोसाभिभूयप्पा
मिच्छत्तेण अभिया । अक्कोसे सरणं जंति टंकणा इव पव्ययं । १६
५८. बहुगुणप्पकप्पाई
कुज्जा अत्तसमाहिए। जेणणे ण विरुज्भेज्जा तेणं तं तं समायरे ॥२०॥
५६. इमं च धम्ममायाय कासवेण पवेदयं । कुण्या भिक्खू गिलाणस्स
अगिलाए समाहिए।२१।
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सूर्य भुङ रु पात्रेषु, ग्लानाभिहृतं इति च । तच्च बीजोदर्क भुक्त्वा, तदुद्देशकादि यत्कृतम् ॥
लिप्ता: तीव्राभितापेन, उज्झताः असमाहिताः । कण्डूि श्रेयः, अरुष: अपराध्यति ॥
तत्त्वेन अनुशिष्टाः ते अप्रतिज्ञेन जानता । न एष नियतो मार्गः, असमीक्ष्या वा कृतिः ॥ ईशी या वान् एषा, अग्रे वेणुरिव कविता | गृहिणां अभिहृतं श्रेयः, भोक्तुं न तु भिक्षूणाम् ।।
धर्मप्रज्ञापना या सारम्भाणां विशोधिका । न तु एताभिः दृष्टिभिः, पूर्वमासीत् प्रकल्पितम् ॥ सर्वाभिः अनुयुक्तिभिः, अशक्नुवन्तः यापयितुम् । ततः याद निराकृत्य, ते भूयोऽपि प्रगल्भताः ॥ रागदोषाभिभूतात्मानः, मिथ्यात्वेन अभिद्रताः । आक्रोशान् शरणं यान्ति, तङ्गणा इव पर्वतम् ॥
सा.
बहुगुणप्रकल्पानि,
कुर्यात् आत्मसमाहितः । येनान्यः न विरुध्येत
तेन तत् तत् समाचरेत् ।।
इमं च
काश्यपेन
कुर्याद् भिक्षुः अगिलया
धर्ममादाय,
प्रवेदितम् ।
ग्लानस्य, समाहितः ॥
प्र० ३ : उपसर्गपरिक्षा श्लो० ५१-५६
:
५१. धापा में बाते हैं और रोगी के लिये भोजन मंगवाते हैं । आप कन्द-मूल खाते हैं, कच्चा जल पीते हैं और मुनि के निमित्त बना भोजन लेते हैं ।
लिप्त
५२. आप तीव्र कषाय से असमाहित हैं । " व्रण को
(विवेक) शून्य" और अधिक खुजलाना ठीक नहीं है ( क्योंकि उससे ) कठिनाई पैदा होती है । '
५२. अप्रतिज्ञ (विषय के संकल्प से") और ज्ञानी भिक्षु उन्हें तत्त्व से अनुशासित करते हुये कहते
'आपका यह मार्ग युक्तिसंगत" नहीं है। आपकी कथनी और करनी भी सुचिन्तित नहीं है।
-
५४. 'गृहस्थ द्वारा लाया हुआ भोजन खाना ठीक है, भिक्षु द्वारा लाया हुआ भोजन ठीक नहीं है'आपका इस प्रकार कहना बांस की फुनगी की तरह कृश है— निश्चय तक पहुंचाने वाला नहीं है ।
५५. यह धर्म - त्रज्ञापना (ग्लान मुनि के लिये आहार लाकर देने से ) गृहस्थों के पाप की विशुद्धि होती है । (सूत्रकार पूर्वपक्ष के प्रति कहते हैं) तुम्हारी पूर्व परम्परा में इन दृष्टियों की प्रकल्पना नहीं है । "
५६. वे जब सभी अनुयुक्तियों के द्वारा अपने पक्ष की स्थापना करने में असमर्थ हो जाते हैं तब वाद को छोड़कर फिर धृष्ट हो जाते हैं ।"
५७. राग-द्वेष से अभिभूत और मिच्या शरणाओं से भरे हुए गाली-गली की शरण में चले जाते हैं, जैसे तंगण" पर्वत की शरण में ।
२५. वात्म-समाहित युवाकाल में) बहुगुणउत्पादक चर्चा करे । वैसा आचरण (हेतु आदि का (प्रयोग) करे जिससे कोई विरोधी न बने ।
५६. काश्यप ( भगवान् महावीर ) के द्वारा बताये गये इस धर्म को स्वीकार कर शान्तचित्त भिक्षु अग्लानभाव
से" रुग्ण भिक्षु की सेवा करे ।
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