Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १ ६०. संखाय पेसलं धम्म दिदिमं परिणिव्वुडे ।
उवसग्गे णियामित्ता आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ।२२॥
-त्ति बेमि॥
१४२ संख्याय पेशलं धर्म, दृष्टिमान् परिनिर्वतः । उपसर्गान् नियम्य, आमोक्षाय परिव्रजेत् ।
इति ब्रवीमि ॥
० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ६०-६६ ६०. दृष्टिसंपन्न और प्रशान्त भिक्षु पवित्र धर्म को
जान, मोक्ष-प्राप्ति तक उपसर्गों को सहता हुआ परिव्रजन करे।
-ऐसा मैं कहता हूं।
चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक
६१. आहंसु महापुरिसा
पुवि तत्ततवोधणा। उदएण सिद्धिमावण्णा तत्थ मंदो विसीयइ।१
आहुः महापुरुषाः, पूर्व तप्ततपोधनाः । उदकेन सिद्धिमापन्नाः, तत्र मन्दो विषीदति ॥
६१. कहा जाता है कि अतीत काल में" तप्त तपोधन
महापुरुष सचित्त जल से स्नान आदि करते हुए सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। यह सोचकर मंद भिक्षु (अस्नान आदि व्रतों में) विषण्ण (संदिग्ध) हो जाता
६२. अभुजिया णमी वेदेही
रामउत्ते य भुजिया। बाहुए उदगं भोच्चा तहा तारागणे रिसी।२।
अभक्त्वा नमिः वदेही, रामपुत्रश्च भुक्त्वा । बाहुकः उदकं भुक्त्वा, तथा तारागणः ऋषिः ।।
६२. विदेह जनपद के राजा नमि ने भोजन छोड़कर,
(राजर्षि) रामपुत्र ने भोजन करते हुए तथा बाहुक
और तारागण ऋषि ने केवल जल पीते हुए (सिद्धि प्राप्त की।)
६३. आसिले देविले चेव
दीवायण महारिसी। पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य।३।
आसिलः देविलश्चैव, द्वीपायनो महर्षिः । पाराशरः दकं भुक्त्वा, बीजानि हरितानि च ॥
६३. तथा आसिल-देविल, द्वैपायन और पाराशर
महर्षियों ने सचित्त जल, बीज और हरित का सेवन करते हुए (सिद्धि प्राप्त की।)"
६४. एए पुव्वं महापुरिसा
आहिया इह संमया। भोच्चा बीयोदगं सिद्धा
मेयमणुस्सुयं ।।।
एते पूर्व महापुरुषाः, आहृताः इह सम्मताः । भक्त्वा बीजोदकं सिद्धाः, इति ममैतद् अनुश्रुतम् ॥
६४. अतीत में हुए ये महापुरुष (भारत आदि पुराणों
में) आख्यात हैं और यहां (ऋषिभाषित आदि जैन ग्रन्थों में) भी सम्मत हैं। इन्होंने सचित्त बीज और जल का सेवन कर सिद्धि प्राप्त की-यह मैंने परम्परा से सूना है।
६५. तत्थ मंदा विसीयंति
वाहच्छिण्णा व गद्दभा। पिओ परिसप्पंति पीढसप्पीव संभमे ।।
तत्र मन्दा विषीदन्ति, ६५. (यह सोचकर) मंद भिक्षु विषाद को प्राप्त होते वाहच्छिन्ना इव गर्दभाः ।। हैं । भार को बीच में ही डाल देने वाले" गधे की पृष्ठतः परिसर्पन्ति भांति वे (अस्नान आदि व्रतों को) बीच में ही छोड़ पीठसपिणः इव सम्भ्रमे ।।
देते हैं। वे कठिनाई के समय" मोक्ष की ओर प्रस्थान करने वाले मुमुक्षुओं से पंगु" की भांति पीछे रह जाते हैं।
६६. इहमेगे उ भासंति
सातं सातेण विज्जई। जे तत्य आरियं मग्गं परमं च समाहियं ।।
इह एके तु भाषन्ते, सातं सातेण विद्यते । यस्तत्र आर्यो मार्गः, परमश्च समाधिकः ॥
६६. कुछ दार्शनिक कहते हैं-'सुख से सुख प्राप्त होता
है।' जो आर्य मार्ग है। (वह सुखकर है) उससे परम समाधि (प्राप्त होती है।)
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