Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
४३. बाला बला भूमिमणुक्कमंता पविज्जलं कंटइलं महंतं । विवद्धतप्पेहि सिणचिसे समीरिया कोट्टबॉल करेंति । १६ । समीर्य
४४. वेयालिए णाम महाभितावे
एगायए पस्वयमंतलिखे । हम्मति तत्वा बहूकूरकम्मा परं सहस्साण मुहत्तगाणं ॥ १७॥
४५. संबाहिया दुक्कडिणी थणंति अहो व राम्रो परितप्यमाणा । एगंतकूडे णरए महंते कूडेण तत्या जिसमे हया उ।१८।
४६. भजंति णं पुव्वमरी सरोसं
समुम्बरे ते मुसले गहे । ते भिण्णदेहा रुहिरं यमंता ओमुद्धगा धरणितले पति | १६ | ॥
४७. अणासिया णाम महासियाला पन्या तत्व सयावकोया । सज्जति तत्था बहुकूरकम्मा अदूरमा संकलियाहि बढ़ा | २०|
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वाला बलाद् भूमिमनुक्रामन्तः, 'प्रविज्जला' कण्टकितां महतीम् । विबध्य 'तप्पे हि' विषण्ण चित्तान्, को बलि
कुर्वन्ति ॥
अ० ५ नरकविभक्ति: श्लोक ४३-४८
वैतालिको नाम महाभितापः, एकायत: पर्वतः अन्तरिक्षे । हम्यन्ते तत्र बहुक्रूरकर्माणः, सहस्राणि
परं
मुहूर्तकानि ॥
संबाधिताः दुष्कृतिनः स्तनन्ति, अहनि च रात्री परितप्यमानाः । एकान्तकुटे नरके महति, कूटेन तंत्र विषमे हतास्तु ॥
भञ्जन्ति पूर्वारयः सरोषं, समुद्गरान् ते मुसलान् गृहीत्वा । ते भिन्नदेहाः रुधिरं वमन्तः, अवमूर्द्धकाः धरणीतले पतन्ति ॥
४८. सयाजला णाम ईऽभिदुम्मा
पविज्जला लोहविलीणतत्ता । जंसोऽभिसि पवज्जमाणा
एगायताऽणुकमणं करेंति । २१। एककाः अनक्रमणं
अनशिता नाम महावगालाः, प्रगल्भतास्तत्र सायन्ते तत्र अदूरगाः
सदावकोपाः । बहुक्रूरकर्माणः, श्रृंखला भिर्बद्धाः ||
सदावला नाम नदी अभिदुर्गा, 'प्रविज्जला' लोहविलीनतप्ता । यस्यामभिदुर्गायां प्रपद्यमाना,
कुर्वन्ति ॥
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४३. नरकपाल अज्ञानी नैरयिकों को रक्त और पीव से सनी, कंटकाकीर्ण विशाल भूमी पर बलात् चलाते हैं, फिर जल में प्रवाहित कर बांस के जालों में " फंसाते हैं । जब वे मूच्छित हो जाते हैं। तब उन्हें जल से निकाल", खंड-खंड कर, नगरबलि की भांति चारों ओर बिखेर देते हैं।
४४. नरक में 'वैतालिक" नाम का बहुत ऊंचा"" और अधर में झूलता हुआ महान् संतापकारी एक पर्वत है । (नरकपालों द्वारा उस पर्वत पर चढने के लिए प्रेरित) बहुत क्रूर कर्म करने वाले नैरयिक जब उस पर्वत पर चढने का प्रयत्न करते हैं, (तब उस पर्वत के सिकुड़ जाने पर) वे हत प्रहत होते हैं। यह क्रम दीर्घकाल तक चलता रहता है।
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४५. दुष्कृतकारी नैरयिक अत्यन्त पीड़ित होकर "" दिन-रात परितप्त होते हुए आक्रन्दन करते हैं । अत्यन्त ऊबड़-खाबड़ भूमि वाले विषम और विशाल नरक में वे नैरयिक गलपाश के द्वारा बांधे जाते हैं ।
४६. " पूर्वजन्म के शत्रु "" नरकपाल हाथ में मुद्गर और मूसल लेकर, रुष्ट हो नैरयिकों के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। वे भग्न शरीर होकर रक्त का वमन करते हुए ओंधे शिर धरणी तल पर गिर जाते हैं ।
४७. भूसे बीठ और सदा कुषित रहने वाले " महाकाय शृगाल, एक दूसरे से सटे तथा सांकलों से बंधे हुए "" बहुत क्रूर कर्म वाले"" नैरयिकों को खाते हैं ।
४८. सदाज्वला नाम की एक नदी है । वह अति दुर्गम, पंकिल और अग्नि के ताप से पिघले हुए लोह के समान गरम जल वाली है। उस अति दुर्गम नदी में अकेले चलते हुए नरयिक उसे पार करते हैं ।
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