Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
२४३ प्र०५: नरकविभक्ति: श्लोक ३७-४२ ३७. तिवखाहि सूलाहि ऽभितावयंति तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति, ३७. नरकपाल हाथ में आए श्वापद की
वसोवगं सावययं व लद्धं । वशोपगं श्वापदकमिव लब्ध्वा । भांति नैरयिकों को पाकर उनको तीखे ते सूलविद्धा कलुणं थणंति ते शूलविद्धाः करुणं स्तनन्ति, शूलों से पीड़ित करते हैं। वे शूलों से एगंतदुक्खं दुहओ गिलाणा ॥१०॥ एकान्तदुःखं द्वितः ग्लानाः ॥
विद्ध होकर करुण रुदन करते हैं, एकांत दुःख तथा शारीरिक और मानसिक ग्लानि का अनुभव करते हैं।"
३८. सयाजलं ठाण णिहं महंतं सदाज्वलं स्थानं निहं महत्,
जंसी जलंतो अगणी अकट्ठो। यस्मिन् ज्वलन्नग्निरकाष्ठः । चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणः, अरहस्सरा केइ चिरट्टिईया ।११॥ अरहस्वराः केऽपि चिरस्थितिकाः ॥
३८. सदा जलने वाला एक महान् वध
स्थान है। उसमें बिना काठ की आग जलती है।" वहां बहुत क्रूर कर्म वाले नैरयिक" जोर-जोर से चिल्लाते हुए" लंबे समय तक रहते हैं।
३६. चिया महंतीउ समारभित्ता चिताः महतीः समारभ्य,
छु भंति ते तं कलुणं रसंतं । क्षिपन्ति ते तं करुणं रसन्तम् । आवट्टई तत्थ असाहुकम्मा आवर्तते तत्रासाधुकर्मा, सप्पी जहा छढं जोइमझे ।१२। सपिर्यथा क्षिप्तं ज्योतिर्मध्ये ॥
३६. बड़ी" चिता बना नरकपाल करुण
स्वर से रोते हुए नरयिक को उसमें डाल देते हैं । वहां अशुभ कर्म वाला नैरयिक वैसे ही गल जाता है जैसे आग में पड़ा हुआ घी।
४०. सया कसिणं पुण घम्मठाणं सदा कृत्स्नं पुनर्घर्मस्थानं,
गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म । गाढोपनीतं अतिदुःखधर्मम् । हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं हस्तयोः पादयोश्च बध्वा, सत्तुं व दंडेहि समारभंति ।१३। शत्र मिव दण्डः समारभन्ते ॥
४०. नैरयिकों के रहने का संपूर्ण स्थान
सदा तापमय होता है। वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यन्त दुःखमय है। वहां नरकपाल उनके हाथों और पैरों को बांध उन्हें शत्रु की भांति दंडों से पीटते हैं।"
४१. भंजंति बालस्स वहेण पट्ठि भञ्जन्ति बालस्य व्यथेन पृष्ठि,
सीसं पि भिदंति अयोधणेहिं । शीर्षमपि भिन्दन्ति अयोधनः । ते भिण्णदेहा फलगा व तट्ठा ते भिन्नदेहाः फलका इव तष्टा:, तत्ताहि आराहि णियोजयंति ।१४। तप्ताभिः आराभिनियोज्यन्ते ।।
४१. नरकपाल लकड़ी आदि के प्रहार से"
अज्ञानी नै रयिक की पीठ को तोड़ते हैं और लोह के घनों से उसके शिर को फोड़ते हैं। दोनों ओर से छीले हुए फलकों की भांति" भग्न अंग-प्रत्यंग वाले नरयिक तप्त आराओं से आगे ढकेले जाते हैं ।
४२. अभिजुजिया रुद्द असाहुकम्मा अभियुक्ताः रुद्रं असाधुकर्माणः,
उसंचोइया हत्थिवहं वहति । इषुचोदिता हस्तिवहं वहन्ति । एगं दुरूहित्तु दुवे तओ वा एकमारुह्य द्वौ त्रयो वा, आरुस्स विझंति ककाणओ से ।१५॥ आरुष्य विध्यन्ति 'ककाणओ' तस्य ।।
४२. असाधु कर्म वाले नैरयिक नरकपालों
द्वारा क्रूरतापूर्वक कार्य में व्याप्त होते हैं और बाण से प्रेरित होकर हाथीयोग्य भार ढोते हैं। दो-तीन नरकपाल उस बेचारे की पीठ पर चढ, क्रुद्ध हो, उसकी गरदन को" वींध डालते
हैं।
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