Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
२०७
अध्ययन ४: टिप्पण ५५-५८
न य लोणं लोणिज्जइ, ण य तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा ।
किह सक्को वचेलं, अत्ता अणुहूय कल्लाणो ॥' नमक को नमकीन नहीं बनाया जा सकता। घी और तेल को स्निग्ध नहीं किया जा सकता। जिस आत्मा ने अपने कल्याण का अनुभव कर लिया है उसे कैसे ठगा जा सकता है ?
श्लोक १६ : ५५. (प्रमाद न करने के लिए प्रेरित करता है (आइट्रो)
वृत्तिकार ने इसका अर्थ आदिष्ट-प्रेरित किए जाने पर किया है। चूर्णिकार ने 'आकुट्ठ' शब्द देकर उसके तीन अर्थ किए हैं-प्रेरित, तृप्त और अभिशप्त।' ५६. प्रशंसा करने लग जाता है (पकत्थइ)
इसका अर्थ है-अपनी प्रशंसा करना । जब मुनि को प्रमाद न करने के लिए कहा जाता है तब वह कहता है-मैं अमुक कुल में जन्मा हूं। मैं अमुक हूं। क्या मैं ऐसा अकार्य कर सकता हूं? मैंने वायु से प्रेरित होने वाली कनकलता की भांति कामदेव की वश्यता से कंपित होनी वाली भार्या को छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण की है । क्या मैं ऐसा कर सकता हूं?
यदि सम्भाव्यपापोऽहमपापेनापि किं मया ।
निविषस्यापि सर्पस्य भृशमुद्विजते जनः । यदि लोग मुझे पापी के रूप में देखते हैं तो भला मैं अपापी होकर भी क्या करूंगा ! सर्प चाहे निर्विष ही क्यों न हो, लोग तो उससे भय खाते ही हैं।' ५७. मैथुन की कामना (वेयाणुवीइ)
वेद का अर्थ है-पुरुष वेद का उदय और अनुवीचि का अर्थ है-अनुलोम गमन। इसका तात्पर्यार्थ है-मैथुन का सेवन ।
श्लोक २०: ५८. स्त्रियों के हावभाव (इत्थिवेय)
स्त्रीवेद का अर्थ है-स्त्री की कामवासना।
चूर्णिकार ने स्त्री की कामवासना को करीषाग्नि की भांति अतृप्त बताया है। इसको पुष्ट करने के लिए उन्होंने एक श्लोक उद्धृत किया है१. यह गाथा निशीथ भाष्य गाथा (१३४२ चूणि पृ० १७७) में इस प्रकार प्राप्त है
ण वि लोगं लोणिज्जति, ण वि तुप्पिज्जति घतं व तेल्लं वा ।
किह णाम लोडंमग ! वट्टम्मि ठविज्जते वट्टो॥ २. वृत्ति, पत्र १११ : आदिष्टः चोदितः । ३. चूणि प्र० ११० : आक्रुष्टो नाम चोदितः आघ्रातः अभिशप्तो वा। ४ (क) चूणि, पृ० ११० : कत्थ श्लाघायाम् भृशं कत्थयति श्लाघत्यात्मानमित्यर्थः, अहं नाम अमुगकलप्पसूतो अमुगो वा होतओ एवं
करेस्सामि? येन मया कनकलता इन बातेरिता मदनवशविकम्पमाना भार्या परित्यक्ता सोऽहं पुनरेवं
करिष्यामि ? यदि सम्भाव्यपापो.............॥ (ख) वृत्ति, पत्र १११। ५. (क) चूणि, पृ० ११० : वेदः प्रवेदः तस्य अनुवीचिः अनुलोमगमनं मैथुनगमनमित्यर्थः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १११ : वेदः पुंवेदोदयस्तस्य अनुवीचि आनुकूल्यं मैथुनाभिलाषम् । ६. चूणि, पृ० ११० : इत्थिवेदो हि फुफुमअग्गिसमाणो अवितृप्तः ।
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