Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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ग्यारहवें श्लोक में काली आभा वाले अचित्त अग्निकाय का उल्लेख है ।
पैंतीसवें श्लोक में सूत्रकार ने अग्नि के साथ 'विधूम' शब्द का प्रयोग किया है । वह निर्धूम अग्नि का वाचक है। इंधन के विना धूम नहीं होता। नरक में धन से प्रज्वलित अग्नि नहीं होती निर्धूम अति की तुलना आज के विद्युत् से की जा सकती है । वह अग्नि वैक्रिय से उत्पन्न होती है । वह पाताल में उत्पन्न और अनवस्थित रहती है । उसमें संघर्षण प्रक्रिया की कोई आवश्यकता नहीं रहती ।
एक प्रश्न होता है कि नरकावासों में उत्पन्न जीवों की वेदना का आधार क्या है ? वर्तमान जीवन में वे जिस प्रकार का पापाचार करते है, उसी प्रकार के व्यवहार से उन्हें पीड़ित किया जाता है, अथवा दूसरे प्रकार से ?
नारकीय जीव अपने-अपने कर्मों की मंदता, तीव्रता और मध्यम अवस्था के आधार पर मंद, तीव्र या मध्यम परिणाम वाली वेदना भोगते हैं । उनको पूर्व जीवन के पापाचरणों की स्मृति कराई जाती है । उनको उसी प्रकार से न छेदा जाता है, न मारा जाता है और न उनका वध किया जाता है। पुत्राचरित सारे पाप कर्मों की स्मृति कराकर उन्हें पीड़ित किया जाता है।"
नारकीय जीवों की वेदना तीन प्रकार से उदीर्ण होती है-स्वतः परतः और उभयतः । उभयतः उदीर्ण होने वाली वेदना के कुछेक प्रकारों की सूचना चूर्णिकार ने छबीसवें श्लोक की चूर्णि में प्रस्तुत की है' -
जो जीव पूर्वभव में मांस खाते थे उन्हें उन्हीं के शरीर का मांस खिलाया जाता है ।
झूठ बोलने वालों की जीभ निकाल ली जाता है ।
चारों के अंगोपांग काट दिए जाते हैं ।
परस्त्रीगामी जीवों के वृषण छेदे जाते हैं तथा अग्नि में तपे लोहस्तंभों से आलिंगन करने के लिए बाध्य किया जाता है । जो क्रोधी स्वभाव के थे उनमें क्रोध उत्पन्न कर पीटते हैं ।
जो मानी स्वभाव के थे उनकी अवहेलना की जाती है ।
जो मायावी थे उनको नानाप्रकार से ठगा जाता है ।
अध्ययन ५ प्रामुख
प्रथम तीन नरकावासों – रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा - में परमाधार्मिक देव नारकीयजीवों को वेदना देते हैं । वे देव पनरह प्रकार के हैं । उनके नामों का और कर्मों का विवरण नियुक्तिकार ने प्रस्तुत किया है । उनके कार्यानुरूप नाम हैं । उनका विवरण इस प्रकार है
१. अंब - अपने निवास स्थान से ये देव आकर अपने मनोरंजन के लिए नारकीय जीवों को इधर-उधर दौड़ाते हैं, पीटते हैं, उनको ऊपर उछालकर शूलों में पिरोते हैं। उन्हें पृथ्वी पर पटक-पटक कर पीड़ित करते हैं । उन्हें पुनः अंबर - आकाश में उछालते हैं, नीचे फेंकते हैं।
२. अंबरिषी मुद्गरों से आहत, खड्ग आदि से उपहत, मूच्छित उन नारकियों को ये देव करवत आदि से चीरते हैं, उनके छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं।
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३. श्याम —– ये देव जीवों के अंगच्छेद करते हैं, पहाड़ से नीचे गिराते है, नाक को बींधते हैं, रज्जु से बांधते हैं ।
४. शबल -- ये देव नारकीय जीवों की आंतें बाहर निकाल लेते हैं, हृदय को नष्ट कर देते हैं, कलेजे का मांस निकाल लेते हैं, चमड़ी उधेड़ कर उन्हें कष्ट देते हैं |
५. रौद्र – ये अत्यन्त क्रूरता से नारकीय जीवों को दुःख देते हैं ।
६. उपरोधये देव नारकों के अंग-भंग करते हैं, हाथ
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हों ।
१. चूर्ण, पृ० १३७ : बिना काष्ठै: अकाष्ठा वैकिकालमवा अग्नयः अघट्टिता पातालस्था अप्यनवस्था ।
२. बही, पृ० १३१ । वृत्ति, पत्र १९३२ ।
३. वही, पृष्ठ १३३ ॥
को देते हैं। ऐसा एक भी कर्म नहीं, जो ये न करते
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