Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन ४ : टिप्पण २१-२२ वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं'(१) संकेत देकर
(२) पूछकर । २१. (आमंतिय.........."णिमंतेति)
चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ-विस्तार इस प्रकार किया है
कोई निकट के घर की रहने वाली अथवा शय्यातर की पत्नी अथवा पड़ोसिन भिक्षु के पास आकर कहती है-'मुने ! दिन में मुझे अवकाश या एकांत नहीं मिलता । मैं आपके पास रात में आऊंगी।' वह चाहे धर्म सुनने के लिए कहे या कोई दूसरा प्रयोजन बताए तो भी भिक्षु उसको स्वीकार न करे । वह आगे कहती है-'भिक्षो ! यदि आप मेरे पति के विषय में शंका करते हैं तो मैं उन्हें पूछकर अपने प्रयोजन की बात बताकर आऊंगी।'
अथवा वह कहती है-'मेरे पति दिन में कृषि आदि का काम निपटा कर जब घर आते हैं तब अत्यन्त श्रान्त हो जाते हैं, थक कर चूर हो जाते हैं । वे भोजन कर तत्काल सो जाते हैं। सोते ही उन्हें नींद आ जाती है और तब वे मृत की तरह पड़े रहते हैं । वे बहुत भद्र हैं। मेरे पर कभी कुपित नहीं होते। यदि वे मुझे पर-पुरुष के साथ आती-जाती देख भी लेते हैं तो भी कभी रुष्ट नहीं होते, शंका नहीं करते।'
भिक्षु पूछता है-'क्या तेरा पति तेरा विरोध नहीं करता ?' वह कहती है-'मैं उन्हें पूछकर तथा विश्वास दिलाकर आती हूं। आप विश्वस्त रहें।'
भिक्षु पूछता है-'तुम असमय में क्यों आई हो ?'
वह कहती है-'भिक्षो ! मैं धर्म सुनने के लिए आई हूं। आप आज्ञा दें कि मुझे क्या करना चाहिए ? क्या मैं आपकी सेवा करूं ? क्या मैं आपके चरण पखारूं ? क्या मैं आपका पादमर्दन करूं? मुने ! मेरे घर में जो कुछ है वह सब और मैं स्वयं आपकी हूं। यह शरीर आपका है । मैं तो आपके चरणों की दासी हूं।'
इस प्रकार मीठी बातें करती हुई वह मुनि के पैर दबाए, आलिंगन-उपगृहन करे, गले पर हाथ रखे तब साधु उसे निवारित करे तो वह दीन होकर कहती है-भिक्षो ! अब आपके अतिरिक्त मेरा कौन सहारा है ?
वृत्तिकार ने इन दो चरणों का अर्थ-विस्तार इस प्रकार किया है
स्त्रियां स्वभाव से ही अकर्तव्य-परायण होती हैं। वे मुनि को अपने आने का स्थान और समय का संकेत देती हुई उसे विश्वास भरी बातों से विश्वस्त कर अकार्य करने के लिए निमंत्रण देती हैं तथा अपना उपभोग करने के लिए साधु से स्वीकृति ले लेती हैं । वे स्त्रियां मुनि की आशंका को दूर करने के लिए कहती हैं - 'मैं पतिदेव को पूछकर यहां आई हूं। मैं उनके भोजन, पद-धावन तथा शयन आदि की पूरी व्यवस्था करने के पश्चात् ही यहां आई हैं, अतः आप मेरे पति से संबंधित आशंकाओं को छोड़कर निर्भय हो जाएं'-इस प्रकार वह मुनि में विश्वास पैदाकर कहती है-'भिक्षो! यह शरीर मेरा नहीं है, आपका ही है। इस शरीर में जिस छोटे-बड़े कार्य की क्षमता हो, उसी में आप इसे योजित करें।' २२. (निमन्त्रण रूप) शब्द (सहाणि)
इन्द्रियों के पांच विषयों में 'शब्द' एक विषय है। मुनि केवल गीत आदि शब्दों का ही वर्जन न करे, किन्तु निमंत्रणरूप शब्दों का भी वर्जन करे । ये शब्द दुस्तर होते हैं। ये निमंत्रणरूप शब्द अनेक प्रकार के होते हैं । चूर्णिकार ने एक श्लोक उद्धृत किया है
१. वत्ति, पत्र १०६ : आमंतिय............"सकतं ग्राहयित्वा'.........."भर्तारमामन्यापृच्छय । २. चूणि, पृ० १०५। ३. वृत्ति, पत्र १०६, १०७ । ४. चूणि पृ० १०५ : शब्दा नाम ये शब्दादिविषयाः कथिताः, न केवलं गीताऽऽतोद्यशब्दा वाः, आत्मनिमन्त्रणादयो हि सुदुस्तराः
शब्दाः । अथवा यानि सीत्कारादीनि सद्दाणि कज्जंति तान्येवैतानि विद्धि निमन्त्रणादीनि शब्दानि ।
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