Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूबो १
नरक में उत्पन्न होते हैं ।'
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं।
(१) प्राणी अज्ञान रूपी अन्धकार से घोर अन्धकार में जाते हैं ।
(२) निम्नतम गति में जाते हैं।'
१६. डांस और मच्छरों के ( समसहि
२०. केश (केस)
सिन्धु ताम्रलिप्त (नामप्ति), कोंकण आदि देशों में
देशों में विहरण करने वाले मुनियों को दंश-मशक परीषह का सामना करना पड़ता था ।
श्लोक १३ :
२१. जाल में ( केणे )
इसका अर्थ है-मछली पकड़ने का जाल ।
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जिनको खींचने से मनुष्य को क्लेश होता है, इसलिये बालों को केरा कहा जाता है।*
श्लोक १२ :
२२. आत्मघाती चेष्टा करने वाले (आयदंडसमायारा )
२३. हर्ष (कीड़ा भाव ) (हरिस)
चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है—' केतन' चलनी के आकार का एक जाल होता है। ज्वार के लौटते समय पानी चला जाता है, मछलियां उस जाल (केतन) में फंस जाती हैं । "
श्लोक १४ :
जिनका आत्मा को दंडित करने का स्वभाव है वे आत्मदंड समाचार कहलाते हैं।
बहुत होते थे ये देत मुनियों के विहार-क्षेत्र थे। इन
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं राग या क्रीड़ाभाव ।"
अध्ययन २ : टिप्पण १६-२३
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१. चूर्णि पृष्ठ ८५ : अज्ञानं हि तमः ते ततो अण्णाणतमातो तमंतरं कायाइ उक्कास कालद्वतीयं मोहणिज्जं कम्मं बंधंति, एवं णाणावर णिज्जं दंसणावर णिज्जं, एगिदियादिसु वा एगंततमासु जोणीसु उववज्जंति, विंधकारेसु वा गरएसु ।
२. वृत्ति, पत्र ८३ : तमसः अज्ञानरूपादुत्कृष्टं तमो यान्ति गच्छन्ति यदिवा - अधस्तादप्यधस्तनीं गतिं गच्छन्ति ।
३. (क) चूर्ण, पृ० ८१ : सिंधु-तामलित्तिगादिषु विसएल अतीव दंसणा भवंति अप्रावृतास्ते भूशं बाध्यमानाः शीतेन च अत्थरणपाउरणला ताई सेवामा तेहि वित
दे अधिकाशनका भवन्ति ।
(ख) वृति, पत्र बना
४. चूर्णि, पृ० ८२ : क्लिश्यन्त एमिराकृष्टा इति केशाः । ५. चूणि, पृ० ८२ : केयणं णाम कडवल्ल संठितं मच्छा पाणिए पडिणियते उत्तारिज्जं ति इत्यर्थः ।
६. (क) चूर्णि पृ० ८२ : आत्मानं दण्डयितुं शीलं येषां ते भवन्ति आत्मदण्डसमाचाराः ।
(ख) वृत्ति, पत्र ८३ : आत्मा दण्ड्यते हितात् भ्रश्यते येन स आत्मदण्डः समाचाराः अनुष्ठानम् । ७. वृत्ति, पत्र ८३ ।
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