Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
१६४
इलोक ५६
८०. अनुयुक्तियों के द्वारा (अणुजुतीहि )
चूर्णिकार ने हेतु और तर्क की युक्तियों को अनुयुक्ति माना है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ- प्रमाणभूत हेतु और दृष्टान्त
किया है ।"
८१. वाद को (वायं )
जो छ, जाति, निग्रहस्थान आदि से रहित हो' तथा जो सम्यग् हेतु और दृष्टान्तों से युक्त हो वह याद है।
८२. धृष्ट हो जाते हैं ( पगब्भिया )
मनुस्मृति, अंगों सहित वेद तथा चिकित्सा शास्त्र – ये चारों आज्ञा- सिद्ध हैं । उसके विषय में कोई तर्क नहीं होना चाहिए। युक्ति और अनुमान —ये धर्म
वे तीर्थिक घृष्ट होकर कहते हैं- पुराण, इनमें जो कहा है उसे वैसा ही मान लेना चाहिए। परीक्षण के बहिरंग साधन हैं । इनका प्रयोजन ही क्या है ? हमारे द्वारा स्वीकृत या अभिमत धर्म ही श्रेय है, दूसरा नहीं। क्योंकि हमारे इस अभिमत के प्रति बहुसंख्यक लोग तथा राजा आदि विशिष्ट व्यक्ति आकृष्ट हैं । इस कथन के प्रत्युत्तर में जैन श्रमण कहते हैं- बहुसंख्यक अशानियों से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है ?"
श्रध्ययन ३ : टिप्पण ८०-८२
एरंडकटूरासी, जहा य गोसीसचंदनपलस्स ।
मोल्ले न होज्ज सरिसो, कित्तियमेत्तो गणिज्जंतो ॥१ तहवि गणणा तिरेगो, जह रासी सो न चंदनसरिच्छो । तह निव्विण्णाण महाजणोवि, सोज्झे विसंवयति ॥२ एस्को सचगो जह अंधलमा सहि बहाएहि । होइ वरं उडुब्यो, गहू ते बहुगा अपेच्ता ॥३ एवं बहुगावि मूढा, ण पमाणं जे गई ण याणंति । संसारगमपध, गिरस य बंधमोक्सस्स ॥४
१.२. एक ओर एरंड वृक्ष के काठ का भारा है और एक ओर गोशीर्ष चन्दन का एक पल । दोनों का मूल्य समान नहीं हो सकता । गिनती में एरंड के काष्ठ के टुकड़े अधिक हो सकते हैं, पर उनका मूल्य चन्दन तक नहीं पहुच सकता। इसी प्रकार अज्ञानी लोगों की संख्या अधिक हो सकती है, पर उसका मूल्य ही क्या ?
३. हजारों अन्धों से एक आंख वाला अच्छा होता है । हजार अन्धे भी एकत्रित होकर कुछ भी नहीं देख पाते । अकेला आंख वाला सब कुछ देख लेता है ।
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४. इसी प्रकार मूढ़ व्यक्ति बहुसंख्यक होने पर भी प्रमाण नहीं होते, क्योंकि वे बंध और मोक्ष के उपायों को नहीं जानते और संसार से पार होने की गति के अजान होते हैं ।
१. नि, पृ० १३
२. वृत्ति पत्र ९३ : सर्वाभिरर्थानुगताभिर्युक्तिभिः सर्वैरेव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाणभूतैः ।
३. चूणि, पृ० ६३ : वादो णाम छल-जाति-निग्रहस्थानवर्जितः ।
४. वृत्ति, पत्र ९३, ६४ : सम्यहेतुदृष्टान्तैर्यो वादो जल्पः ।
योजनं युक्तिः अनुपुभ्यत इति अनुपुक्तिः, अनुगता अनुक्ता वा युक्तिः अनुयुक्तिः सर्वे हेतु पुक्तिभिः सतर्क युक्तिभिर्वा ।
५. वृति पत्र ४ स्मिताः पृष्ठतां गता इव वा पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् आशासिद्धा नि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ अन्यच्च किमनया बहिरङ्गया युक्त्याऽनुमानादिकयाsत्र धर्मपरीक्षणे विधेये कर्त्तव्यमस्ति यतः प्रत्यक्ष एव बहुजनसंमतत्वेन राजाचाचपणाच्यादमेवास्मदभिप्रेतो धर्मः वापर इत्येवं विवदन्ते तेषमितरम्नानादि साररहितेन बहुनाऽपि प्रयोजनमस्तीति ।
६. वृषि, पृ० १३ वृत्ति, पत्र १४ ।
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