Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्र०३: उपसर्गपरिज्ञा : श्लो०७६.८२
७६. जैसे वैतरणी नदी (तेज प्रवाह और विषम तट
बंध के कारण) दुस्तर मानी गई है, वैसे ही अबुद्धिमान् पुरुष के लिये इस लोक में स्त्रियां दुस्तर होती
यथा नदी वैतरणी, दुस्तरा इह सम्मता । एवं लोके नार्यः, दुस्तरा! अमतिमता ।। यैः नारीणां संयोगाः, पूतनाः पृष्ठतः कृताः। सर्वमेतत् निराकृत्य, ते स्थिताः सुसमाधौ ॥ एते ओघं तरिष्यन्ति, समुद्रं इव व्यवहारिणः । यत्र प्राणाः विषण्णासीनाः, कृत्यन्ते
स्वककर्मणा॥
७७. जिन्होंने विकृति पैदा करने वाले" स्त्रियों के
संयोगों को पीठ दिखा दी है और जिन्होंने इस समग्र (अनुकूल परीसह) को निरस्त कर दिया है, वे समाधि में स्थित हैं।
सूयगडो १ ७६.जहा गई वेयरणी
दुत्तरा इह सम्मता। एवं लोगंसि णारीओ
दुत्तरा अमईमया ॥१६॥ ७७. जेहिं णारीण संजोगा
पूयणा पिटुओ कया। सव्वमेयं णिराकिच्चा
ते ठिया सुसमाहीए।१७। ७८. एए ओघं तरिस्संति
समुदं व ववहारिणो। जत्थ पाणा विसण्णासी किच्चंती सयकम्मुणा ।१८॥ ७६. तं च भिक्खू परिणाय
सुव्वए समिए चरे। मुसावायं विवज्जेज्जा
ऽदिण्णादाणं च वोसिरे ।१६। ८०. उड्ढमहे तिरियं वा
जे केई तसथावरा। सव्वत्थ विरति कुज्जा
संति णिव्वाणमाहियं ।२०॥ ८१. इमं च धम्ममायाय
कासवेण पवेइयं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स
अगिलाए समाहिए।२१॥ ८२.संखाय पेसलं धम्म
दिट्टिमं परिणिन्डे ।
उवसग्गे णियामित्ता आमोक्खाए परिव्वएज्जासि।२२॥
-त्ति बेमि॥
७८. ये (काम-वासना को जीतने वाले) संसार-समुद्र का
पार पा जायेंगे, जैसे व्यापारी समुद्र का पार पा जाता है, जिस (संसार-समुद्र) में प्राणी विषण्ण नोकर रहते हैं और अपने कर्मों के कारण छिन्न
होते हैं। ७६. इसे जानकर भिक्षु सुव्रत और समित होकर विहरण
करे । वह झूठ बोलना छोड़े और चोरी को त्यागे।
८०. ११५ ऊची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो कोई
त्रस और स्थावर प्राणी हैं, सब अवस्थाओं में" उनकी हिंसा से विरत रहे। (विरति ही) शांति है और शांति ही निर्वाण है।
तच्च भिक्षः परिज्ञाय,
सुव्रतः समितश्चरेत्। __ मृषावादं विवर्जयेत्,
अदत्तादानं च व्युत्सृजेत् ॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यक वा, ये केचित् त्रसस्थावराः। सर्वत्र विरति कुर्यात्, शान्तिः निर्वाणमाहृतम् ।। इमं च धर्ममादाय, काश्यपेन प्रवेदितम्। कुर्यात् भिक्षुः ग्लानस्य, अगिलया समाहितः ॥ संख्याय पेशलं धर्म, दृष्टिमान् परिनिर्वत.। उपसर्गान् नियम्य, आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥
-इति ब्रवीमि ॥
५१. काश्यप (भगवान् महावीर) के द्वारा बताये गये
इस धर्म को स्वीकार कर शांतचित्त भिक्षु अग्लानभाव से रुग्ण भिक्षु की सेवा करे।
८२. दृष्टि-संपन्न और प्रशान्त भिक्षु पवित्र धर्म को
जान, मोक्ष-प्राप्ति तक उपसर्गों को सहता हुआ परिव्रजन करे।
-ऐसा मैं कहता हूं।
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