Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन २: टिप्पण ७२-७५
प्रस्तुत स्थल में कर्म का बंध कैसे होता है- इसका निर्देश मिलता है। इसकी स्पष्ट व्याख्या प्रज्ञापना सूत्र में मिलती है। ज्ञानावरण कर्म का अनुभव (वेदन) करने वाला जीव दर्शनावरणीय कर्म का अनुभव करता है। दर्शनावरणीय कर्म का अनुभव करने वाला दर्शन-मोहनीय कर्म का अनुभव करता है । दर्शन-मोहनीय कर्म का अनुभव करने वाला मिथ्यात्व का अनुभव करता है-अतत्त्व में तत्त्व का अध्यवसाय करता है । मिथ्यात्व के अनुभव से आठ कर्मों का बंध होता है।' कर्मबंध की इस प्रक्रिया में कर्मबंध का प्रथम अंग ज्ञानावरण का उदय या अज्ञान है । इस आधार पर अज्ञान से दुःख का स्पर्श होता है, यह कहना संगत है।
तालाब के नाले बन्द कर दिए जाते हैं तब उसमें रहा हुआ जल हवा और सूर्य के ताप से सूख जाता है। इसी प्रकार कर्म के आस्रव-द्वारों का निरोध कर देने पर, इन्द्रियों का संयम होने पर, स्पृष्ट दुःख अपने आप विनष्ट हो जाता है। . ... ७२. दुःख (कर्म) (दुक्खं)
__आगम साहित्य में दुःख का प्रयोग कर्म और दुःख-इन दो अर्थों में होता है। कर्म दुःख का हेतु है, इसलिए उसे भी दुःख कहा जाता है । चूर्णिकार ने यहां दुःख का अर्थ कर्म किया है।' ७३. स्पृष्ट होता है (पुट्ठ)
कर्म की तीन प्रारम्भिक अवस्थाएं ये हैं
१. बद्ध--राग-द्वेष के परिणाम से कर्म-योग्य पुद्गलों का कर्मरूप में परिणत होना। २. स्पृष्ट-कर्म-पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लेष होना।
३. बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट-कर्म पुद्गलों का प्रगाढ़ बंध होना।' चूर्णिकार ने कर्म की चार अवस्थाएं निर्दिष्ट की हैं१. बद्ध, २. स्पृष्ट, ३. निधत्त, ४. निकाचित ।'
श्लोक ५६ : ७४. स्त्रियों के प्रति (विण्णवणा)
स्त्रियां रति-काम का विज्ञापन करती हैं अथवा मोहातुर पुरुषों के द्वारा स्त्रियों के समक्ष रति-काम का विज्ञापन किया जाता है, इसलिए विज्ञापना' शब्द का प्रयोग स्त्री के अर्थ में किया गया है।' ७५. अनासक्त हैं (अजोसिया)
चूर्णिकार ने 'जुषी प्रीति-सेवनयोः' इस धातु से इसको निष्पन्न कर इसका अर्थ-अनादर करते हुए किया है।" इन्द्रियों के पांचों विषय स्वाधीन होते हैं । चूर्णिकार ने एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है
पुप्फ-फलाणं च रसं सुराए मंसस्स महिलियाणं च ।
जाणंता जे विरता ते दुक्करकारए वंदे ॥ पुष्प, फल, मदिरा, मांस और स्त्री के रस को जानते हुए जो उनसे विरत होते हैं वे दुष्कर तप करने वाले हैं । उनको मैं १. पन्नवणा २३॥३॥ २. चूणि, पृष्ठ ६६ : तं पंचणालिबिहाडिततडागदृष्टान्तेन निरुद्धसु च नालिकामुखेषु वाता-ऽऽतपेनापि शुष्यते, ओसिच्चमाणं सिग्यतरं
सुक्खति, एवं संयमेन निरुद्धाश्रवस्य पूर्वोपचितं कर्म क्षीयते। ३. वही, पत्र ६६ : दुक्खमिति कम्मं । ४. प्रज्ञापना २३।१५, वृत्ति, पत्र ४५६ । ५. चूणि, पृ०६६ : पुटुंणाम बद्ध-पुट्ठ-णिधत्त-णिकाइतं । ६.(क) चूणि, पृष्ठ ७० : विज्ञापयन्ति रतिकामाः विज्ञाप्यन्ते वा मोहातुरैविज्ञापनाः स्त्रियः।
(ख) वृत्ति, पत्र ७२ : कामाथिभिविज्ञाप्यन्ते यास्तदथिन्यो वा कामिनं विज्ञापयन्ति ता विज्ञापनाः स्त्रियः । ७. चूणि पृ०७० । 'जुषी प्रीति-सेवनयोः' अभूषिता नाम अनाद्रियमाणा इत्यर्थः ।
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