Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन २ : टिप्पण ७६-७८ वंदन करता हूं।'
वृत्तिकार ने 'अजुष्टा' संस्कृत रूप देकर इसका अर्थ असेवित किया है।' ७६. ऊर्ध्व (मोक्ष) की ओर (उड्ढे)
चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-मोक्ष और मोक्षसुख।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल मोक्ष किया है। उत्तराध्ययन सूत्र (६/१३) में 'बहियाउड्डमादाय' में भी 'उड्ड' शब्द का यही अर्थ है । ऊवं का शाब्दिक अर्थ है-ऊपर । जैन मत के अनुसार लोक के अत्यन्त ऊर्ध्वभाग में मुक्तिशिला है । वही मोक्ष है, इसीलिए ऊर्ध्व शब्द मोक्ष का वाचक बन गया। अन्य दर्शनों में जो 'पर' शब्द का अर्थ है, वही अर्थ जैनदर्शन में 'ऊर्व' का है।
श्लोक ५७: ७७. श्रेष्ठ (रत्न, आभूषण आदि) को (अग्गं)
इसका अर्थ है उत्तम । जो वर्ण, प्रभा और प्रभाव से उत्तम होता है उसे अग्ग (अग्र) या श्रेष्ठ कहा जाता है । वह वस्त्र, आभूषण, हाथी, घोड़ा, स्त्री या पुरुष-कुछ भी हो सकता है । जिस क्षेत्र में जो द्रव्य प्रधान होता है, वह श्रेष्ठ कहलाता है।' ७८. श्लोक ५७ :
प्रस्तुत श्लोक में महाव्रतों के साथ रात्रीभोजन-विरमण का भी उल्लेख है । स्थानांग (५/१) और उत्तराध्ययन (२३/२३) के अनुसार भगवान महावीर ने पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया था। वहां रात्रीभोजन-विरमण का उल्लेख नहीं है। स्थानांग (९।६२) में रात्रीभोजन विरमण का उल्लेख भी नहीं मिलता। प्रस्तुत श्लोक से ज्ञात होता है कि रात्रीभोजन-विरमण की व्यवस्था भी पांच महावतों की व्यवस्था के साथ जुड़ी हुई है। छठे अध्ययन के अठाइसवें श्लोक से भी यह तथ्य पुष्ट होता है। वहां बताया गया कि भगवान् महावीर ने स्त्री और रात्रीभोजन का वर्जन किया-'से वारिय इत्थी सराइभत्ते' ।
प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने पूर्व दिशा निवासी और पश्चिम दिशा निवासी आचार्यों के अर्थभेद का उल्लेख किया है । जो अनुवाद किया गया है वह पूर्व दिशावासी आचार्य की परम्परा के अनुसार है। पश्चिम दिशावासी आचार्यों के अनुसार प्रस्तुत श्लोक का अर्थ इस प्रकार होता है-व्यापारियों द्वारा लाये गए रत्नों को राजा या उनके समकक्ष लोग ही धारण करते हैं । किन्तु इस संसार में रत्नों के व्यापारी और खरीददार कितने हैं ? इसी प्रकार परम महाव्रत (रत्नों की भांति) अत्यन्त दुर्लभ हैं। उनके उपदेष्टा और धारण करने वाले कितने लोग हैं ? बहुत कम हैं।
भगवान महावीर के समय में जैन मुनियों का विहार-क्षेत्र प्रायः पूर्व में ही था। वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में आचार्य भद्रबाहु के समय द्वादशवर्षीय दुष्काल पड़ा। उस समय साधुओं के कुछ गण दक्षिण भारत में चले गए और कुछ गण मालव प्रदेश में । उज्जैनी जैन धर्म का मुख्य केन्द्र बन गया। वीर निर्वाण की तीसरी शताब्दी में महाराज संप्रति ने सौराष्ट्र, महाराष्ट्र आदि पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उनकी प्रेरणा से उन प्रदेशों में जैन मुनि विहार करने लगे और वे प्रदेश जैन धर्म के मुख्य केन्द्र बन गए। वहां विहार करने वाले आचार्य ही पश्चिम दिशा निवासी हैं । १. चूणि, पृ० ७० । २. वृत्ति, पत्र ७२ : अजुष्टाः-असेविताः। ३. चूणि, पृ०७० : ऊवमिति मोक्षः तत्सुखं वा । ४. वृत्ति, पत्र ७२ : ऊर्ध्वमिति मोक्षम् । ५. (क) चूणि, पृष्ठ ७० : यदुत्तमं किञ्चित् तदग्गं, तद्यथा वर्णतः प्रकाशत प्रभावतश्चेत्यादि, तच्च रत्नादि तत्तु द्रव्यं वणिम्भिरानीतं
राजानो धारयन्ति तत्प्रतिमा वा तत्तु वस्त्रनाभरणादि वा, तथैव चाश्वो हस्ती स्त्री पुरुषो वा, यो वा यस्मिन् क्षेत्रे प्रधान स तत्र तत् प्रधानं द्रव्यं धारयति । (ख) वृत्ति, पत्र ७२। ६. चूणि, पृष्ठ ७० : पूर्वदिग्निवासिनामाचार्याणामर्थः। प्रतीच्यापरदिग्निवासिनस्त्वेवं कथयन्ति'... "धारयन्ति शतसाहस्राण्य्र्घनयाणि
वा राजान एव धारयन्ति, तत्तल्या तत्प्रतिमा वा। कियन्तो लोके हस्तिवणिजः क्रायिका वा ? एवं परमाणि महन्वताणि रत्नभूतान्यतिदुर्वराणि, तेषामल्पा एवोपवेष्टारो धारयितराश्च ।
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