Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन ३ : प्रामुख कुछेक व्यक्ति (अन्य यूथिक या स्वयूथिक) कष्टों से घबराकर कहते हैं
'सर्वाणि सत्वानि सुखे रतानि, सर्वाणि दुःखाच्च समुद्विजन्ते ।
तस्मात् सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सुखप्रदाता लभते सुखानि ॥' सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख से घबराते हैं । इसलिये सुखेच्छु व्यक्ति सदा सुख देने का प्रयत्न करे, क्योंकि जो सुख देता है, वह सुख पाता है।
'मणुण्णं भोयणं भोच्चा, मणण्णं झायए सयणासणं ।
मणुण्णंसि अगारंसि, मणुण्णं झायए मुणो ॥' मनोज्ञ भोजन, मनोज्ञ शयनासन और घर-मकान से चित्त प्रसन्न होता है, उससे समाधि मिलती है और समाधि से मुक्ति प्राप्त होती है। इसलिये स्वतः सिद्ध है कि सुख से सुख मिलता है।'
इसका निरसन करते हुये वृत्तिकार ने अनेक सुन्दर श्लोक उद्धृत किये हैं।'
'सातं सातेण विज्जई'- इस प्रसंग में भगवान् बुद्ध द्वारा धर्म समादान के चार विभागों का वर्णन द्रष्टव्य है। एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती नगरी के जेतवन में अनाथ पिण्डक के आराम में विहरण कर रहे थे। उन्होंने भिक्षुओं को आमंत्रित कर कहा-धर्म समादान चार प्रकार का है'
१. वर्तमान में सुख, भविष्य में दुःख । २. वर्तमान में दुःख, भविष्य में दुःख । ३. वर्तमान में दुःख, भविष्य में सुख । ४. वर्तमान में सुख, भविष्य में सुख ।
उक्त विभागों में चौथे विभाग को 'सातं सातेण विज्जई' का आधार बनाया जा सकता है, किन्तु भावना की दृष्टि से और बौद्ध मान्यता की दृष्टि से यह सही नहीं है। यहां चौथे विभाग की भावना यह है -जो भिक्षु वर्तमान जीवन में तीव्र राग, तीव्र द्वेष, तीव्र मोह वाला नहीं होता, वह उनसे होने वाले दुःख और दौर्मनस्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। वह अनुकूल धर्मों से निवृत्त होकर अध्यात्म में लीन रहता है । वह यहां भी सुख पाता है और मरकर भी सुगति और स्वर्ग लोक में उत्पन्न होता है।
इसलिये 'सातं सातेण विज्जई' उन्हीं बौद्धों की मान्यता हो सकती है जो वर्तमान में इन्द्रिय विषयों के भोगों को भोगते हुए साधना करते हैं और मरने के पश्चात् मोक्षगमन का विश्वास रखते हैं ।
१. वृत्ति, पत्र ९७। २. देखें-वृत्ति, पत्र ६७ ॥ ३. मज्झिमनिकाय ४५/१-६ : चत्तारिमानि भिक्खवे धम्मसमादानानि
अत्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चप्पन्नसुखं आयति दुक्ख विपाकं । अत्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आतिं दुक्खविपाकं । अस्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयति सुखविपाकं ।
अस्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयति सुखविपाकं ।। ४. मज्झिमनिकाय । ४५/५/६ ।
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