Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १ ५४. एवं
मत्ता
महंतरं
धम्ममिणं सहिया बहू जणा । छंदावलगा
गुरुणो
विरया तिण्ण महोघमाहियं । ३२।
।
५५. संयुकम्मरस
जं दुक्खं
तं
मरणं हेच्च वयंति पंडिया |१|
५६ जे
विष्णवणाहोसिया
।
संतिष्णेहि समं वियाहिया । लम्हा उ ति पासहा अद्दक्खू कामाई
५७. अगं
धारेंती
- ति बेमि ॥
एवं
भिक्खुणो पुढं अबोहिए। संजमओडवचिज्जई
रोगवं |२|
वणिएहि आहिये
रायाणया इहं ।
परमा महव्वया अक्खाया उ सराइभोयणा | ३|
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५८. जे इह सायाणुगा णरा अम्भोवण्णा कामेहि मुच्छिया । किवणेण समं पगबिभया वि जाति समाहिमाहियं |४|
५९. वाहेण जहा व बिच्छ
अबले होइ गवं पचोइए । से अंतसो अप्यचामए णाईव चए अबले विसोयइ | ५ |
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एवं
मत्वा
महदन्तरं,
धर्ममिमं सहिताः बहवो जनाः । छन्दानुवर्तका,
गुरो:
विरताः तीर्णाः महीषमाहृतम् ।।
- इति ब्रवीमि ।
तइओ उद्देसो तीसरा उद्देशक
संवृतकर्मण:
भिक्षो:
यत् दुःखं स्पृष्टं अयोध्या । संयमतः अपचीयते,
तत्
मरणं हित्वा व्रजन्ति पंडिता: ।।
ये विज्ञापनाभिः
सन्तीर्णः समं
अजुष्टा, व्याहृताः । तस्मात् ऊर्ध्वमिति पश्यत, अद्राक्षुः
कामान्
रोगवत् ॥
अयं वणिगृभिराहितं धारयन्ति राजका: इह । एवं परमाणि महाव्रतानि आख्यातानि तु सरात्रिभोजनानि ॥
श्र० २ : वैतालीय : श्लोक ५४-५६
५४. इस प्रकार ( सामायिक की पूर्व परंपरा और वर्तमान परंपरा के महान् अन्तर को जानकर, धर्म को समझकर, आत्महित में रत गुरु के अनु सार चलने वाले विरत बहुत सारे मनुष्य इस संसार समुद्र का पार पा
गए हैं ।
ये इह सातानुगाः नराः, अध्युपपन्नाः कामेषु मूच्छिताः । कृपणेन समं प्रगल्भता:, नापि जानन्ति समाधिमाहृतम् ॥ व्यापेन यथा वा विक्षतः, अबलो भवति गौः प्रचोदितः । स अन्तश: अल्पस्थामा, नातीव शक्नोति अबलो विषोदति ॥
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- ऐसा मैं कहता हूं ।
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५५. संवृत कर्म वाले भिक्षु के जो अज्ञान के द्वारा दुःख (कर्म) स्पृष्ट होता ७२ है" वह संयम के द्वारा विनष्ट हो जाता है (उसके विनष्ट होने पर) पंडित मनुष्य मरण ( कर्म या संसार) को छोड़कर (मोक्ष) चले जाते हैं।
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५६. जो स्त्रियों के प्रति अनासक्त हैं, " वे (संसार को तरे हुए के समान कहे गए है इसलिए तुम (मोक्ष) की ओरण देवी, कामभोगों को रोग के समान देखो ।
५७. व्यापारियों द्वारा लाए गए श्रेष्ठ ( रत्न, आभूषण आदि) को राजा लोग धारण करते हैं, वैसे ही रात्रि भोजन-विरमण सहित पांच महाव्रत परम बतलाए गए हैं । (उन्हें संयमी मनुष्य धारण करते हैं ।) ५८. जो के पीछे दौड़ने वाले हैं", सुख आसक्त है", कामभोगों में हैं, कृपण के समान ढीठ हैं", वे महावीर द्वारा कथित समाधि को नहीं जान सकते ।
५-६०. जैसे गाडीवान द्वारा" प्रताड़ित
और प्रेरित बैल अन्त में अल्प प्राण हो जाता है (तथा) वह दुर्बल होकर गाडी को विषम मार्ग में नहीं खींच पाता,
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