Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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समगडो १
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अध्यवन २: टिप्पण ६-१२
श्लोक ४: ६. लुप्त होते हैं (लुप्पंति)
नरक आदि गतियों में प्राणी विवध दुःखों से पीड़ित होते हैं। वे सारे सुख-सुविधा के स्थानों से च्युत हो जाते हैं।' ७. श्लोक ४:
प्रस्तुत श्लोक में तीन सिद्धान्त प्रतिपादित हैं१. जीवों के कर्म भिन्न-भिन्न होते हैं । २. कर्म स्वयं द्वारा कृत होता है, किसी अन्य के द्वारा नहीं। ३. कृत-कर्म का फल भुगते बिना उससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता।
श्लोक ५-६ ८. देव (देवा)
चूणिकार ने 'देव' शब्द से वानव्यन्तर देवों का' और वृत्तिकार ने ज्योतिष्क तथा सौधर्म आदि देवों का ग्रहण किया है। ६. श्लोक ५:
मनुष्य अपने मोह के कारण अनित्य को नित्य मानकर उसमें आसक्त हो जाता है। उसकी आसक्ति जागति में बाधा बनती है । अनित्यता का बोध उस बाधा के व्यूह को तोड़ता है । देव और मनुष्य के भोग अनित्य हैं । उनका जीवन ही अनित्य है तव उनके भोग नित्य कैसे हो सकते हैं ? इस सत्य का बोध हो जाने पर मनुष्य जागृति के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। श्लोक ६:
संकल्प से काम और काम से संस्तव (गाढ़ परिचय) उत्पन्न होता है। उससे कर्म का बन्ध होता है। मनुष्य जब मरता है तब कामनाएं और परिचित भोग उसके साथ नहीं जाते। वह उनके द्वारा अजित कम-बन्धनों के साथ परलोक में जाता है। स्वभावतः या किसी निमित्त से मृत्यु के आने पर मनुष्य का जीवन-सूत्र टूट जाता है। काम और परिचित भोग-सामग्री यहां रह जाती है और वह कहीं अन्यत्र चला जाता है। संयोग का अन्त वियोग में और जीवन का अन्त मृत्यु में होता है, इसलिए मनुष्य को जागरण की दिशा में प्रमत्त नहीं होना चाहिए।
श्लोक ७: १०. बहुश्रुत (शास्त्र-पारगामी) (बहुस्सुए)
चूणिकार ने इसका कोई अर्थ नहीं किया है ।
वृत्तिकार ने आगम और उसके अर्थ के पारगामी को बहुश्रुत माना है।' ११. धार्मिक (न्यायवेत्ता) (धम्मिए)
चूणिकार ने धार्मिक का अर्थ न्यायवेत्ता' और वृत्तिकार ने धर्मशील किया है।' १२. मायाकृत असत् आचरण में (अभिण मकहिं)
नूम के दो अर्थ हैं-माया और कर्म । प्राणी विषयों के द्वारा उन (माया और कम) के अभिमुख हाते हैं । इसलिए चूर्णिकार १. चूणि, पृ० ५२ : नरकादिषु विविधैर्दुःखलृप्यन्ते सर्वसुखस्थानेभ्यश्च च्यवन्ते । २. वही, पृ० ५३ : देवग्रहणाद् वाणमंतरभेदाः । ३. वृत्ति, पत्र ५७ : देवा ज्योतिष्कसौधर्माद्याः। ४ वही, पत्र ५७ : बहुश्रुता: शास्त्रार्थपारगाः । ५. चूणि, पृ० ५३ : धर्मे नियुक्तो धार्मिकः । ६. वृत्ति, पत्र ५७ : धार्मिका धर्माचरणशीलाः ।
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