Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो१
अध्ययन २: टिप्पण १८-२१ किन्तु साधन नहीं हैं । उसका साधन है-कषायमुक्ति । आन्तरिक कषायों से मुक्ति मिले बिना नग्नता और तपःजनित कृशता होने पर भी निर्वाण उपलब्ध नहीं होता। इसलिए इस वास्तविकता की विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि निर्वाण-प्राप्ति का साधन (साधकतम उपाय) कषाय मुक्ति ही है।
श्लोक ११: १८. हे योगवान् (योगवान्)
चूर्णिकार ने योगवान् का अर्थ विस्तार से किया है । उनके अनुसार योग का अर्थ है-संयम । योगवान् अर्थात् संयमी । ज्ञानयोग, दर्शनयोग और चारित्रयोग-इन पर जिनका अधिकार हो जाता है, वह योगवान् होता है। यह चूर्णि सम्मत दूसरा अर्थ है। जो समितियों और गुप्तियों (मन, वचन और काया) के प्रति सतत उपयुक्त, निरन्तर जागृत होता है वह योगवान् होता है । जो काम कोई दूसरा करता है और चित्त किसी दूसरे काम में लगता है, वह उस क्रिया के प्रति योगवान् नहीं होता। लोकप्रवाद में भी कहा जाता है कि मेरा मन किसी दूसरे काम में लगा हुआ था इसलिए मैं उसे नहीं पहचान सका। शारीरिक क्रिया और मानसिक क्रिया-दोनों एक साथ चले, यह स्वाधीन योग है। स्वाधीन योग वाला व्यक्ति ही योगवान् होता है। चूर्णिकार ने भावक्रिया के सूत्र को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। शरीर की क्रिया और मन का योग नहीं होता उसे द्रव्य-क्रिया कहा जाता है। शरीर और मन की क्रिया का योग भाव-क्रिया है । यह साधना और सफलता का महत्त्वपूर्ण सूत्र है।
जैन परंपरा में योग, संयम, संवर-ये एकार्थक शब्द हैं। महर्षि पतंजलि ने अपनी साधना पद्धति में 'योग' शब्द को प्रधानता दी है। जैन साधना-पद्धति में संयम और संवर शब्द की प्रधानता है। फिर भी आगमकारों ने अनेक स्थानों पर योग और योगवान् का प्रयोग किया है।'
दिगंबर परंपरा में कायक्लेश के छह भेद निर्दिष्ट हैं- अयन, शयन, आसन, स्थान, अवग्रह और योग । योग के अनेक प्रकार हैं-आतापनायोग, वृक्षमूलयोग, शीतयोग आदि । देखें-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अन्तर्गत 'कायक्लेश' शब्द । १६. सूक्ष्म प्राणियों से संकुल हैं (अणुपाणा)
इस पद का अर्थ 'अनुपानका'-जूते न पहनने वाले किया जाए तो संभावना से दूर नहीं होगा। २०. अनुशासन का (अणुसासणं)
हमारी पृथ्वी जीवों से भरी हुई है। यात्रा के मार्ग भी जीवों से खाली नहीं होते। इस स्थिति में अहिंसापूर्वक चलना कैसे संभव हो सकता है ? इस विषय में आचार्य ने मार्ग-दर्शन दिया है। यतना (संयम या अप्रमत्तभाव) पूर्वक चलने वाला ही अहिंसक हो सकता है।
इस विषय की समग्र जानकारी के लिये देखें-दसवेआलियं, अध्ययन पांच और आयारचूला अध्ययन तीन ।
श्लोक १४: २१. श्लोक १४:
___'कर्म शरीर को प्रकंपित कर'-यह इस श्लोक का मुख्य प्रतिपाद्य है। चूणिकार ने कर्म को प्रकंपित कर—यह लिखा है।' इसकी स्पष्टता आयारो (५/५६) के 'धुणे कम्मसरीरगं' इस सूत्र से होती है। शेष श्लोक में प्रकंपन की प्रक्रिया बतलाई गई है। प्रज्ञापना के अनुसार मनुष्य में काम-संज्ञा प्रधान होती है। स्थानांग सूत्र में काम-संज्ञा की उत्तेजना के चार कारण बतलाए हैं। १. चूणि, पृ० ५४,५५ : योगो नाम संयम एव, योगो यस्यास्तीति स भवति योगवान् । जोगा वा जस्स वसे वति स भवति योगवान् णाणादीया। अथवा योगवानिति समिति-गुप्तिषु नित्योपयुक्तः, स्वाधीनयोग इत्यर्थः, यो हि अन्यत् करोति अन्यत्र चोपयुक्तः स हि तत्प्रवृत्तयोग प्रति अयोगवानिव भवति । लोकेऽपि ध वक्तारो भवन्ति-विमना अहं, तेन मया नोपलक्षितमिति । अत: स्वाधीनयोग एव योगवान् । २. सूयगडो २१५३५ भावणाजोगसुद्धप्पा...शा२७: माणजोगं समाहट्ट । उत्तरज्झयणाणि १९२४ : जोगवं उवहाणवं। ३. चूणि, पृष्ठ ५५ : धुणिया णाम धुणेज्जा कम्मं । ४. प्रज्ञापमा ८८ : मणुस्सा....''ओसाणकारणं पडुच्च मेहुणसण्णोवगया।
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