Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन २ : टिप्पण १३-१७ ने 'अभिनूमकर' का अर्थ विषय किया है। वृत्तिकार ने 'अभिनूमकृत' पाठ के अनुसार उसका अर्थ माया या कर्म के द्वारा कृत असद् अनुष्ठान किया है। १३. मूच्छित होता है (मुच्छिए) ।
मूर्छा जागृति में बाधक है । विषयों में मूच्छित होने वाला गृहस्थ ही कर्मों से बाधित नहीं होता, किन्तु ब्राह्मण और भिक्षु भी विषयों में मूच्छित होकर कर्मों से बाधित होता है।
श्लोक ८: १४. धुत को कथा (धुतं)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ वैराग्य किया है । मतान्तर के अनुसार इसका अर्थ है-चारित्र ।' १५. गहस्थी को ही....''प्रव्रज्या को नहीं (आरं....परं) 'आर' के तीन अर्थ प्राप्त हैं
१. गृहस्थी । २. इहलोक ।
३. संसार। 'पर' के भी तीन अर्थ हैं
१. प्रव्रज्या। २. परलोक।
३. मोक्ष। १६. (णाहिसी........"किच्चई)
___ सही अर्थ में प्रव्रजित वह होता है जो विषय और वासना-दोनों से मुक्त होता है। जो विषय से मुक्त होकर भी वासना से मुक्त नहीं होता वह प्रवृजित के वेष में गृहस्थ होता है। जिसके अन्तःकरण में वैराग्य का बीज अंकुरित नहीं होता फिर भी जो वैराग्य का उपदेश देता है परंतु स्वयं उसका आचरण नहीं करता, उसके साथ रहकर कोई व्यक्ति प्रवजित और गृहस्थ का अन्तर कैसे जान सकता है ? संसार और मोक्ष का भेद कैसे जान सकता है ? इस भेद को नहीं जानने वाला अधर में होता है-न पूरा गृहस्थ होता है और न पूरा प्रवजित । यह कर्म (कामनाजनित प्रवृत्ति) को छिन्न करने का नहीं किन्तु उससे छिन्न होने का मार्ग है। यह जागृति का विघ्न है, इसलिए आचार्य ने शिष्य को सावधान किया है। विवेक, यतना, संयम, जागरूकता और अप्रमाद-ये सब एकार्थक हैं।
श्लोक: १७. नग्न रहता है, बेह को कृश करता है (णिगिणे किसे)
नग्नत्व अकिंचनता का सूचक है । कृशत्व तपस्या का सूचक है।' अकिंचनता और तपस्या-ये दोनों निर्वाण के हेतु हैं, १. चूणि, पृ० ५३ : नूमं नाम कर्म माया वा, अभिमुखं नमीकुर्वन्तीति अभिनूमकराः विषयाः । २. वृत्ति, पत्र ५७ : तेऽप्याभिमुख्येन मं न्ति कर्म माया वा तत्कृतैः असदनुष्ठानः । ३. चूणि, पृ० ५३ धुतं णाम येन कर्माणि विधूयन्ते, वैराग्य इत्यर्थः। चारित्रमपि केचिन् भणन्ति । ४. (क) चूणि, पृ० ५४ : आरं गृहस्थत्वम्, परं प्रव्रज्या ।......'आरमिति अयं लोकः परस्तु परलोकः । अयं सोत्रोऽर्थः-आरः
संसारः, परः मोक्षः। (ख) वृत्ति, पत्र ५७,५८। ५. चणि, पृ० ५४ : णिगिणो नाम नग्नः । कृशस्तपोनिष्टप्तत्वाद् आतापनादिभिः ।
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