Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडी १
३८. (जए
"सुहुमे" .....अलूसए)
चूर्णिकार ने 'जए' को मुनि का विशेषण मानकर उसका अर्थ ज्ञानवान् या अप्रमत्त किया है।' वृत्तिकार ने 'जए' को क्रियापद मानकर उसका संस्कृतरूप 'जयेत्' (जीतना) किया है।"
चूर्णिकार ने 'सुहुमे' के दो अर्थ किए हैं—संयम और सूक्ष्म बुद्धिवाला । वृत्तिकार ने इसका अर्थ संयम किया है।
चूर्णिकार के अनुसार 'अलूसए' का अर्थ है-अनाशंसी और वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- अविराधक । हमने इसका अर्थ अहिंसक किया है।
आचारांग के संदर्भ में चूर्णिकार के अर्थ सूत्रकार की भावना के अधिक निकट हैं ।"
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श्लोक २८
३६. न क्रोध करे और न अभिमान करे ( णो कुम्भे णो माणि माहणे )
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जिसकी प्रज्ञा कुशल होती है और जो सूक्ष्मदर्शी होता है उसी साधक को वैराग्यपूर्ण और तात्विक दोनों प्रकार की धमकथा करने का अधिकार है। इसीलिए धर्मकधी को प्रज्ञा सम्पन्न और सूक्ष्मदर्शी होना चाहिए जो स्वयं प्रमत्त होता है यह दूसरे को अप्रमाद का उपदेश नहीं दे सकता, इसलिए उसे सदा अप्रमत्त होना चाहिए। समता धर्म की व्याख्या करने वाला किसी को बाधा नहीं पहुंचा सकता, इसलिए उसे अलूसक या अहिंसक होना चाहिए।
धर्मकथा के किसी प्रसंग से रुष्ट होकर कोई व्यक्ति तर्जना या ताड़ना करे तो धर्मरूपी को क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। धर्मकथा की विशिष्टता पर अभिमान नहीं होना चाहिए ।"
'माणी' के स्थान पर 'माणि' विभक्ति रहित पद का प्रयोग है ।
श्लोक २६
१. संवृतात्मा
२. विषयों के प्रति अनासक्त
४०. इलोक २६ :
उपलब्ध अंग साहित्य आर्य सुधर्मा द्वारा रचित है। उन्होने अंग सूत्रों में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म की व्याख्या की है । उनका अभिमत है कि जिन लोगों ने धर्म की व्याख्या की है, कर रहे हैं या करेंगे, वे इन लक्षणों से युक्त होने चाहिए—
अध्ययन २ टिप्पण : ३८-४०
१. चूणि, पृ० ६० : जते त्ति ज्ञानवान् अप्रमत्तश्च ।
२. वृत्ति, पत्र, ६३ : जयेत् ।
३. चूर्णि, पृ० ६० : सुहुमो नाम संयम
३. स्वच्छ हृदय ।
प्रायः सभी लोग धर्म के प्रति प्रणत होते हैं, इसलिए चूर्णिकार ने 'बहुजणणमण' पद का अर्थ धर्मं किया है । वृत्तिकार का
'अहवा सुहुमेति सूक्ष्मबुद्धि: ।
४. वृत्ति पत्र ६३ : सूक्ष्मे तु संयमे ।
५. चूर्णि, पृ० ६०, ६१ : अलूषकस्तु स एवमनाशंसी न च मार्गविराधनां करोति ।
६. वृत्ति, पत्र ६३ : अलूषकः अविराधकः ।
७. देखें--- जए -- आयारो ३।३८, ४।४१
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सुहुम- आयारोमा २३
लसए - आयारो ६।६५, ६६
८. देखें- आयारो २।१७४-१७८ ६।१००-१०५ ।
8. चूर्णि, पृ० ६१ : बहुजनं नामयतीति बहुजननामनः, बहुजनेन वा नम्यते, स्तूयत इत्यर्थः, स धर्म एव ।
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