Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
३८
अध्ययन १: टिप्पण ६१-६३
पुढो-जीव शरीर की रष्टि से या नरक आदि भवों की उत्पत्ति की दृष्टि से पृथक्-पृथक् है। इससे आत्माद्वैतवाद का निरसन होता है।
जियाजीव । इससे पंच स्कंध से अतिरिक्त जीव का अभाव मानने वाले बौद्धों का निरसन किया गया है।
वेदयन्ति सुहं दुक्खं-प्रत्येक जीव सुख-दुःख का अनुभव करता है। इससे आत्मा के अकर्तृत्व का निरसन किया गया है। अकर्ता और अबिकारी आत्मा में सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता।
अदुवा लुप्पंति ठाणओ-इस पद के द्वारा जीवों का एक भव से दूसरे भव में जाने की स्वीकृति है।' चूर्णिकार ने इस प्रकार की कोई चर्चा नहीं की है।
श्लोक २६
६१. सैद्धिक -निर्वाण का सुख हो अथवा असद्धिक-सांसारिक सुख-दुःख हो (सेहियं वा असेहियं)
चणिकार ने सैद्धिक का अर्थ 'निर्वाण' किया है। वृत्तिकार ने सैद्धिक-सुख का अर्थ 'अपवर्गसुख' और असैद्धिक-दुःख का अर्थ सांसारिक दुःख किया है। यह मुख्य अर्थ है। विकल्प रूप में इन्होंने सैद्धिक और असैद्धिक-दोनों शब्दों को सुख और दुःख-इन दोनों के साथ जोड़कर भी अर्थ प्रस्तुत किया है । वह इस प्रकार है
सैद्धिक सुख-माला, चन्दन, अंगना आदि के उपभोग से प्राप्त सुख । सद्धिक दुःख-चाबुक मारने, ताडना देने, तप्त शलाका द्वारा हागने से उत्पन्न दुःख । असैद्धिक सुख-बाह्य निमित्त के बिना आन्तरिक आनन्द रूप सुख जो आकस्मिक रूप से उत्पन्न होता है। असैद्धिक दुःख-शरीर में उत्पन्न ज्वर, मस्तक पीडा, शिरःशूल आदि ।
श्लोक ३०
६२. नियतिजनित (संगइयं)
चर्णिकार ने इसकी व्युत्पत्ति दो प्रकार से की है-संगतेः इदं-सांगतिकं, अथवा संगते ; हितं-सांगतिक। इसके दो अर्थ किए हैं-सहगत अर्थात् संयुक्त अथवा जो आत्मा के साथ नित्य संगत रहते हैं।'
वृत्तिकार ने संगति का अर्थ नियति किया है। संगति में होने वाला 'सांगतिक' कहा जाता है। इसका अर्थ हैनियतिजनित ।'
श्लोक ३१:
६३. कुछ सुख-दुःख नियत होता है और कुछ अनियत (णिययाणिययं संतं)
चूणिकार के अनुसार नियत का अर्थ है-जो कर्म जैसे किए गए हैं उनका उसी प्रकार वेदन करना। जैसे देव और नारकों का आयु निरुपक्रम (निमित्तों से अपरिवर्तनीय) होता है। अनियत का अर्थ है-जो कर्म जैसे किए गए हैं उनका उसी प्रकार से वेदन न करना । जैसे-मनुष्य और तिर्यञ्च का आयु सामान्यतः सोपक्रम (निमित्तों से परिवर्तनीय) होता है। १. वृत्ति, पत्र ३०,३१। २. चूणि, पृ० ३१ : सेधनं सिद्धिः निर्वाणमित्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र ३१। ४. चणि, पृ० ३१: संगतेरिदं संगतियं भवति, संगतेर्वा हितं संगतिकं भवति । ५. वृत्ति, पत्र ३२: संगइयं ति सम्यक् स्वपरिणामेन गतिः-यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं सा संगतिः-नियतिस्तस्यां भवं
सांगतिकम्। ६.णि, पृ० ३२: णियता-णियतं संतं जे जधा कडा कम्मा ते तधा चेव णियमेण वेदिज्जति त्ति एवं नियतं । तं जधा-णिरुवक्कमाय
देव-णेरतिय त्ति, अणियतं सोवक्कमायुं ति ।
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