Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन १ : टिप्पण १२६-१३० कहा है। वे 'मार' का अर्थ मृत्यु भी करते हैं।
वृत्तिकार का कथन है कि स्वयंभू ने लोक की सृष्टि की। वह अतिभार से आक्रान्त न हो जाए, इस भय से उसने 'यम' नामक 'मार' (मृत्यु) की सृष्टि की। उस 'मार' ने माया को जन्म दिया। उस माया से लोक मरने लगे।'
श्लोक ६७ १२९. यह जगत् अंडे से उत्पन्न हुआ है (अंडकडे)
चूर्णिकार का कथन है कि ब्रह्मा ने अण्डे का सर्जन किया। वह जब फूटा तब सारी सृष्टि प्रकट हुई।'
वृत्तिकार ने माना है कि ब्रह्मा ने पानी में अंडे की सृष्टि की । वह बड़ा हुआ । जब वह दो भागों में विभक्त हुआ तब एक भाग ऊध्वं लोक, दूसरा भाग अधोलोक और उनके मध्य में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश, समुद्र, नदी, पर्वत आदि आदि की संस्थिति हुई। वृत्तिकार ने एक श्लोक उद्धृत करते हुए यह बताया है कि सृष्टि के आदि-काल में तमस् ही था।
श्लोक ६८ : १३०. श्लोक ६८:
पूर्ववर्ती चार श्लोकों (६४-६७) में सृष्टिवाद का मत उल्लिखित कर प्रस्तुत श्लोक में सूत्रकार अपना अभिमत प्रदर्शित करते हैं । जगत् के विषय में दो नयों से विचार किया गया है। इस जगत् को सृष्टि माना भी जा सकता है और नहीं भी माना जा सकता । द्रव्याथिक नय की दृष्टि से यह जगत् शाश्वत है। जितने द्रव्य थे उतने ही रहेंगे । एक अणु भी नष्ट नहीं होता और एक अणु भी नया उत्पन्न नहीं होता। पर्यायाथिक नय की दृष्टि से इस जगत् को सृष्टि कहा जा सकता है, किन्तु यह है कर्ता-विहीन सृष्टि । यह किसी एक मूल तत्त्व के द्वारा निष्पन्न सृष्टि नहीं है। मूल तत्त्व दो हैं-चेतन और अचेतन । ये दोनों ही अपने अपने पर्यायों द्वारा बदलते रहते हैं । सृष्टि का विकास और ह्रास होता रहता है । इस सिद्धान्त की पुष्टि भगवान महावीर के एक संवाद से होती है। एक प्रश्न के उत्तर में महावीर ने कहा-द्रव्य की दृष्टि से लोक नित्य है। पर्याय उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, इस दृष्टि से वह अनित्य है।'
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'स्व-पर्याय का अर्थ आत्माभिप्राय किया है। किन्तु दोनो नयों की दृष्टि से विचार करने पर स्वपर्याय का अर्थ द्रव्यगत पर्याय ही उचित प्रतीत होता है।
१. चूणि, पृष्ठ ४१ : तत्र तावद् विष्णुकारणिका ब्रुवते-विष्णुः स्वर्लोकादेकांशेनावतीर्य इमान् लोकानसृजत्, स एव मारयतीति
कृत्वा मारोऽपदिश्यते। २. वही, पृष्ठ ४१ : मारो णाम मृत्युः। ३. वृत्ति, पत्र ४३ : स्वयंभुवा लोकं निष्पाद्यातिमारभयाद्यमाख्यो मारयतीति मारो व्यधायि, तेन मारेण 'संस्तुता' कृता प्रसाधिता
माया, तया च मायया लोका म्रियन्ते । ४. चूणि, पृष्ठ ४२ : ब्रह्मा किलाण्डमसृजत्, ततो भिद्यमानात् शकुनवल्लोकाः प्रादुर्भूताः । ५. वृत्ति, पत्र ४३, ४४ : ब्रह्माऽप्स्वण्डमसृजत्, तस्माच्च क्रमेण वृद्धात्पश्चाद्विधाभावमुपगतादूर्वाधोविभागोऽभूत्, तन्मध्ये च सर्वाः
प्रकृतयोऽभूवन्, एवं पृथिव्यप्तेजोवायवाकाशसमुद्रसरित्पर्वतमकराकरनिवेशादिसंस्थितिरभूदिति, तथा चोक्तम्
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः॥ ६. अंगसुत्ताणि (भाग २) भगवई, ७५६ : दवट्टयाए सासया, भावट्ठयाए असासया। ७. (क) चूणि, पृष्ठ ४२ : स्वपर्यायो नाम आत्माभिप्रायः अप्पणिज्जो गमकः । (ख) वृत्ति, पत्र ४४ : 'स्वकः' स्वकीयः 'पर्यायः' अभिप्रायैर्युक्तिविशेषः ।
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