Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन १ : टिप्पण १५१-१५२ श्लोक ८२
चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक को सर्वज्ञतावादियों के मत का निरूपण करने वाला माना है। उनका कथन है कि सर्वज्ञवादी दो प्रकार का अभिमत प्रस्तुत करते हैं
१ कुछ सर्वज्ञवादी कहते हैं कि सर्वज्ञ अनन्त ज्ञान का धारक होता है । वह सब कुछ जानता है। उसका ज्ञान सर्वत्र अप्रतिहत होता है।
२ कुछ सर्वज्ञवादी मानते हैं कि सर्वज्ञ तियग, ऊर्ध्व और अधोलोक को क्षेत्र और काल की दृष्टि से परिमित रूप में ही जानता है।
वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक में दो मतों का निर्देश है । कुछ मतावलम्बी मानते हैं कि कोई सर्वज्ञ नहीं होता । हमारे अतीन्द्रियद्रष्टा ऋषि क्षेत्र की दृष्टि से अरिमित क्षेत्र को जानते हैं और काल की दृष्टि से अपरिमित काल को जानते हैं । किन्तु वे सर्वज्ञ नहीं हैं। 'अपरिमित' शब्द का यह एक तासर्य है । इसका दूसरा अर्थ यह है हमारे ऋषि आवश्यक तत्त्व को जानने वाले अतीन्द्रियद्रष्टा हैं । यह प्रसिद्ध श्लोक है
___ सर्व पश्यतु वा मा वा ईष्टमथं तु पश्यतु ।
कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयुज्यते । कोई सब कुछ देखने वाला (सर्वज्ञ) हो या न हो, कोई बात नहीं है । जो इष्ट अर्थ है उसको देखना आवश्यक है । कीड़ों की संख्या का ज्ञान निरर्थक है । उस ज्ञान से किसी का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
दूसरा मत यह है-कुछ दार्शनिक मानते हैं कि सर्वज्ञ कोई होता ही नहीं । क्षेत्र और काल की दृष्टि से परिमित को ही जाना जा सकता है। ब्रह्मा हजार दिव्य वर्ष तक सोता रहता है। उस अवस्था में वह कुछ भी नहीं देखता। फिर जागृत होता है और हजार दिव्य वर्ष तक जागता रहता है । उस अवस्था में वह देखता है।'
श्लोक ८३ १५१. श्लोक ८३:
इस श्लोक में पूर्ववर्ती दोनों श्लोकों का प्रत्युत्तर है। उसमें यह कहा गया था कि कुछेक दार्शनिक लोक को नित्य मानते हुए कहते हैं कि त्रस प्राणी सदा त्रस ही रहते हैं और स्थावर प्राणी सदा स्थावर ही रहते हैं। बस कभी स्थावर नहीं होते और स्थावर कभी त्रस नहीं होते।
प्रस्तुत श्लोक में कहा गया है कि त्रस निर्वर्तक नामकर्म का उपचय कर प्राणी त्रस होता है और स्थावर निर्वर्तक नामकर्म का उपचय कर प्राणी स्थावर होता है । स्थावर त्रस हो सकते हैं और त्रस स्थावर हो सकते हैं। जिस जन्म में जो पर्याय व्यक्त होता है उसी के आधार पर हम उसको त्रस या स्थावर कहते हैं। कोई भी पर्याय अनन्त और असीम नहीं होता। जो इस जन्म में पुरुष होता है वह अगले जन्म में स्त्री हो सकता है और जो स्त्री होता है वह पुरुष हो सकता है।
श्लोक ८४: १५२. जोव दुःख नहीं चाहता (अकंतदुक्खा)
चूर्णिकार ने अकान्त का अर्थ अप्रिय किया है।
वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-आक्रान्त और अकान्त । आक्रान्त का अर्थ है-अभिभूत और अकान्त का अर्थ १. चूणि, पृ. ४६ : केषाञ्चित् सर्वज्ञवादिनां अनन्तं ज्ञानं सर्वत्र चाप्रतिहतमिति ..................... सर्वत्रेति तिर्यगूर्वमधश्चेति क्षेत्रतः कालतः। २. वृत्ति, पत्र ५१। ३. चूणि, पृ० ४८ : कान्तं प्रियमित्यर्थः, न कान्तमकान्तम् ।
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