Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूपगडो १
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अध्ययन १ : टिप्पण ८२
उपलध सामग्री से मालूम होता है कि संजय अपने अनेकान्सवाद का प्रयोग परलोक, देवता, कर्मफल, मुक्तपुरुष जैसे परोक्ष विषयों पर करता था। जैन संजय की युक्ति को प्रत्यक्ष वस्तुओं पर भी लागू करते हैं । उदाहरणार्थं सामने मौजूद घट की सत्ता के बारे में यदि जैन दर्शन से प्रश्न पूछा जाए तो उत्तर निम्न प्रकार मिलेगा
(१) घट यहां है ? - हो सकता है (स्याद् अस्ति ) | (२) घट यहां नहीं है ? नहीं भी हो सकता है ( स्वाद नास्ति ) । (३) क्या घट यहां है भी और नहीं भी है ? - है भी और नहीं भी हो सकता है । (स्याद् अस्ति च नास्ति च ) । (४) 'हो सकता है' (स्याद्) - क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, स्याद् यह अवक्तव्य है ।
(५) घट यहां हो सकता है ( स्यादस्ति ) - क्या यह कहा जा सकता है ? — नहीं, घट यहां हो सकता है - यह नहीं कहा
जा सकता ।
(६) घट यहां नहीं हो सकता है ( स्यान्नास्ति ) - क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, घट यहां नहीं हो सकतायह नहीं कहा जा सकता ।
(७) घट यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है— क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, घट यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, यह नहीं कहा जा सकता ।
इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (वाद) की स्थापना न करना, जो कि संजय का वाद था। उसी को संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर, जैनों ने अपना लिया और उसके चतुभंगी न्याय को सप्तभंगी में परिणत कर दिया।"
पंडित राहुल सांकृत्यायन ने काल्पनिक तथ्यों के आधार पर स्थापनाएं प्रस्तुत की हैं
(१) संजय वेलट्ठपुत्त के चार अंग वाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंग वाला किया गया है ।
(२) एक भी सिद्धान्त की स्थापना न करना, जो कि संजय का वाद था, उसी को संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनों ने अपना लिया।
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ये दोनों स्थापनाएं बहुत ही भ्रामक और वास्तविकता से परे हैं। संजयवेलट्ठिपुत्त का दृष्टिकोण अज्ञानवादी या संशयवादी था। इसलिए वे किसी प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर नहीं देते थे । भगवान् महावीर का दृष्टिकोण अनेकांतवादी था। वे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर निश्चयात्मक भाषा में देते थे । भगवती तथा अन्य आगमों में भी भगवान् महावीर के साथ हुए प्रश्नोत्तरों का विशाल संकलन है । उसके अध्ययन से पता चलता है कि भगवान् महावीर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- इन दो नयदृष्टियों से प्रश्नों का समाधान देते थे। ये ही दो नय अनेकान्तवाद के मूल आधार हैं। स्याद्वाद के तीन भंग मौलिक हैं- स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य । भगवान् महावीर ने प्रश्नों के समाधान में और तत्त्व के निरूपण में बार-बार इनका प्रयोग किया है। संजय वेलट्ठपुत्त की अपनी चतुर्भगात्मक प्रतिपादन शैली और भगवान् महावीर की प्रतिपादन शैली त्रिभंगात्मक थी। फिर इस कल्पना का कोई आधार नहीं है कि संजय के अनुवादियों के लुप्त हो जाने से जैनों ने उसके सिद्धान्त को अपना लिया। सत् असत् सद्-असत् और अनुभव (अवक्तव्य ) -- ये चार भंग उपनिषद् काल से चले आ रहे हैं । उस समय के सभी प्रायः दार्शनिकों ने इन भंगों का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया है । फिर यह मानने का कोई अर्थ नहीं है कि जैनों ने संजयवेलट्ठिपुत्त के भंगों के आधार पर स्याद्वाद की सप्तभंगी
विकसित की ।
'स्यात् अस्ति' का अर्थ 'हो सकता है' - यह भी काल्पनिक है। जैन परम्परा में यह अर्थ कभी मान्य नहीं रहा है । भगवान् महावीर से पूछा गया
भंते! द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा है ? अनात्मा है ? या अवक्तव्य है ?
भगवान् महावीर ने उत्तर दिया- द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है ।
"भंते! यह कैसे ?
१. दर्शन-दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पृ० ४६८, ४६६ ।
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